समास (Compound)
‘समास’ शब्द का शाब्दिक अर्थ है– संक्षिप्त करना। सम्+आस् = ‘सम्’ का अर्थ है– अच्छी तरह पास एवं ‘आस्’ का अर्थ है– बैठना या मिलना। अर्थात् दो शब्दोँ को पास–पास मिलाना।
‘जब परस्पर सम्बन्ध रखने वाले दो या दो से अधिक शब्दोँ के बीच की विभक्ति हटाकर, उन्हेँ मिलाकर जब एक नया स्वतन्त्र शब्द बनाया जाता है, तब इस मेल को समास कहते हैँ।’
परस्पर मिले हुए शब्दोँ को समस्त–पद अर्थात् समास किया हुआ, या सामासिक शब्द कहते हैँ। जैसे– यथाशक्ति, त्रिभुवन, रामराज्य आदि।
समस्त पद के शब्दोँ (मिले हुए शब्दोँ) को अलग–अलग करने की प्रक्रिया को 'समास–विग्रह' कहते हैँ। जैसे– यथाशक्ति = शक्ति के अनुसार।
हिन्दी मेँ समास प्रायः नए शब्द–निर्माण हेतु प्रयोग मेँ लिए जाते हैँ। भाषा मेँ संक्षिप्तता, उत्कृष्टता, तीव्रता व गंभीरता लाने के लिए भी समास उपयोगी हैँ। समास प्रकरण संस्कृत साहित्य मेँ अति प्राचीन प्रतीत होता है। श्रीमद्भगवद्गीता मेँ भगवान श्रीकृष्ण ने भी कहा है—“मैँ समासोँ मेँ द्वन्द्व समास मेँ हूँ।”
जिन दो मुख्य शब्दोँ के मेल से समास बनता है, उन शब्दोँ को खण्ड या अवयव या पद कहते हैँ। समस्त पद या सामासिक पद का विग्रह करने पर समस्त पद के दो पद बन जाते हैँ– पूर्व पद और उत्तर पद। जैसे– घनश्याम मेँ ‘घन’ पूर्व पद और ‘श्याम’ उत्तर पद है।
दो या अधिक शब्दों (पदों) का परस्पर संबद्ध बतानेवाले शब्दों अथवा प्रत्ययों का लोप होने पर उन दो या अधिक शब्दों से जो एक स्वतन्त शब्द बनता है, उस शब्द को सामासिक शब्द कहते है और उन दो या अधिक शब्दों का जो संयोग होता है, वह समास कहलाता है।
दूसरे अर्थ में- कम-से-कम शब्दों में अधिक-से-अधिक अर्थ प्रकट करना 'समास' कहलाता है।
समास में कम-से-कम दो पदों का योग होता है।
वे दो या अधिक पद एक पद हो जाते है: 'एकपदीभावः समासः'।
समास में समस्त होनेवाले पदों का विभक्ति-प्रत्यय लुप्त हो जाता है।
समस्त पदों के बीच सन्धि की स्थिति होने पर सन्धि अवश्य होती है। यह नियम संस्कृत तत्सम में अत्यावश्यक है।
समास के भेद
समास के मुख्य सात भेद है:-
(1) तत्पुरुष समास ( Determinative Compound) (2) कर्मधारय समास (Appositional Compound)
(3) द्विगु समास (Numeral Compound) (4) बहुव्रीहि समास (Attributive Compound)
(5) द्वन्द समास (Copulative Compound) (6) अव्ययीभाव समास(Adverbial Compound)
(7) नञ समास
पदों की प्रधनता के आधार पर वर्गीकरण
पूर्वपद प्रधान- अव्ययीभाव
उत्तरपद प्रधान- तत्पुरुष, कर्मधारय व द्विगु
दोनों पद प्रधान- द्वन्द
दोनों पद अप्रधान- बहुव्रीहि (इसमें कोई तीसरा अर्थ प्रधान होता है )
(1) तत्पुरुष समास :- जिस समास में बाद का अथवा उत्तरपद प्रधान होता है तथा दोनों पदों के बीच का कारक-चिह्न लुप्त हो जाता है, उसे तत्पुरुष समास कहते है। जैसे-
तुलसीकृत= तुलसी से कृत
शराहत= शर से आहत
राहखर्च= राह के लिए खर्च
राजकुमार= राजा का कुमार
तत्पुरुष समास में अन्तिम पद प्रधान होता है। इस समास में साधारणतः प्रथम पद विशेषण और द्वितीय पद विशेष्य होता है। द्वितीय पद, अर्थात बादवाले पद के विशेष्य होने के कारण इस समास में उसकी प्रधानता रहती है।
तत्पुरुष समास के भेद
तत्पुरुष समास के छह भेद होते है-
(i) कर्म तत्पुरुष
(ii) करण तत्पुरुष
(iii) सम्प्रदान तत्पुरुष
(iv) अपादान तत्पुरुष
(v) सम्बन्ध तत्पुरुष
(vi) अधिकरण तत्पुरुष
(i)कर्म तत्पुरुष (द्वितीया तत्पुरुष)- इसमें कर्म कारक की विभक्ति 'को' का लोप हो जाता है। जैसे-
समस्त-पद विग्रह समस्त-पद विग्रह
स्वर्गप्राप्त स्वर्ग (को) प्राप्त कष्टापत्र कष्ट (को) आपत्र (प्राप्त)
आशातीत आशा (को) अतीत गृहागत गृह (को) आगत
सिरतोड़ सिर (को) तोड़नेवाला चिड़ीमार चिड़ियों (को) मारनेवाला
वयप्राप्त वय (उम्र) को प्राप्त गगनचुंबी गगन को चूमने वाला
यशप्राप्त यश को प्राप्त ग्रामगत ग्राम को गया हुआ
रथचालक रथ को चलाने वाला जेबकतरा जेब को कतरने वाला
हस्तगत हाथ को गत जातिगत जाति को गया हुआ
मुँहतोड़ मुँह को तोड़ने वाला दुःखहर दुःख को हरने वाला
यशप्राप्त यश को प्राप्त पदप्राप्त पद को प्राप्त
ग्रामगत ग्राम को गत कालातीत काल को अतीत (परे) करके
देशगत देश को गत आशातीत आशा को अतीत(से परे)
कठफोड़वा काष्ठ को फोड़ने वाला दिलतोड़ दिल को तोड़ने वाला
जीतोड़ जी को तोड़ने वाला जीभर जी को भरकर
लाभप्रद लाभ को प्रदान करने वाला शरणागत शरण को आया हुआ
रोजगारोन्मुख रोजगार को उन्मुख सर्वज्ञ सर्व को जानने वाला
गगनचुम्बी गगन को चूमने वाला परलोकगमन परलोक को गमन
चित्तचोर चित्त को चोरने वाला ख्याति प्राप्त ख्याति को प्राप्त
दिनकर दिन को करने वाला जितेन्द्रिय इंद्रियोँ को जीतने वाला
चक्रधर चक्र को धारण करने वाला धरणीधर धरणी (पृथ्वी) को धारण करने वाला
गिरिधर गिरि को धारण करने वाला हलधर हल को धारण करने वाला
मरणातुर मरने को आतुर
(ii) करण तत्पुरुष (तृतीया तत्पुरुष) - इसमें करण कारक की विभक्ति 'से', 'के द्वारा' का लोप हो जाता है। जैसे-
समस्त-पद विग्रह समस्त-पद विग्रह
वाग्युद्ध वाक् (से) युद्ध आचारकुशल आचार (से) कुशल
तुलसीकृत तुलसी (से) कृत कपड़छना कपड़े (से) छना हुआ
मुँहमाँगा मुँह (से) माँगा रसभरा रस (से) भरा
करुणागत करुणा से पूर्ण भयाकुल भय से आकुल
रेखांकित रेखा से अंकित शोकग्रस्त शोक से ग्रस्त
मदांध मद से अंधा मनचाहा मन से चाहा
सूररचित सूर द्वारा रचित तुलसीकृत तुलसी द्वारा कृत
अकालपीड़ित अकाल से पीड़ित श्रमसाध्य श्रम से साध्य
कष्टसाध्य कष्ट से साध्य ईश्वरदत्त ईश्वर द्वारा दिया गया
रत्नजड़ित रत्न से जड़ित हस्तलिखित हस्त से लिखित
अनुभव जन्य अनुभव से जन्य रेखांकित रेखा से अंकित
गुरुदत्त गुरु द्वारा दत्त सूरकृत सूर द्वारा कृत
दयार्द्र दया से आर्द्र आँखोँदेखा आँखोँ से देखा
मदमत्त मद (नशे) से मत्त रोगातुर रोग से आतुर
भुखमरा भूख से मरा हुआ शल्यचिकित्सा शल्य (चीर-फाड़) से चिकित्सा
स्वयंसिद्ध स्वयं से सिद्ध शोकाकुल शोक से आकुल
मेघाच्छन्न मेघ से आच्छन्न अश्रुपूर्ण अश्रु से पूर्ण
वचनबद्ध वचन से बद्ध वाग्युद्ध वाक् (वाणी) से युद्ध
क्षुधातुर क्षुधा से आतुर
(iii)सम्प्रदान तत्पुरुष (चतुर्थी तत्पुरुष) - इसमें संप्रदान कारक की विभक्ति 'के लिए' लुप्त हो जाती है। जैसे-
समस्त-पद विग्रह समस्त-पद विग्रह
देशभक्ति देश (के लिए) भक्ति विद्यालय विद्या (के लिए) आलय
रसोईघर रसोई (के लिए) घर हथकड़ी हाथ (के लिए) कड़ी
राहखर्च राह (के लिए) खर्च पुत्रशोक पुत्र (के लिए) शोक
स्नानघर स्नान के लिए घर यज्ञशाला यज्ञ के लिए शाला
डाकगाड़ी डाक के लिए गाड़ी गौशाला गौ के लिए शाला
सभाभवन सभा के लिए भवन लोकहितकारी लोक के लिए हितकारी
देवालय देव के लिए आलय गुरुदक्षिणा गुरु के लिए दक्षिणा
भूतबलि भूत के लिए बलि प्रौढ़ शिक्षा प्रौढ़ोँ के लिए शिक्षा
शपथपत्र शपथ के लिए पत्र स्नानागार स्नान के लिए आगार
कृष्णार्पण कृष्ण के लिए अर्पण युद्धभूमि युद्ध के लिए भूमि
बलिपशु बलि के लिए पशु पाठशाला पाठ के लिए शाला
विद्यामंदिर विद्या के लिए मंदिर आवेदन पत्र आवेदन के लिए पत्र
हवन सामग्री हवन के लिए सामग्री कारागृह कैदियोँ के लिए गृह
परीक्षा भवन परीक्षा के लिए भवन सत्याग्रह सत्य के लिए आग्रह
छात्रावास छात्रोँ के लिए आवास युववाणी युवाओँ के लिए वाणी
समाचार पत्र समाचार के लिए पत्र वाचनालय वाचन के लिए आलय
चिकित्सालय चिकित्सा के लिए आलय बंदीगृह बंदी के लिए गृह
(iv)अपादान तत्पुरुष (पंचमी तत्पुरुष) - इसमे अपादान कारक की विभक्ति 'से' (अलग होने का भाव) लुप्त हो जाती है। जैसे-
समस्त-पद विग्रह समस्त-पद विग्रह
दूरागत दूर से आगत जन्मान्ध जन्म से अन्ध
रणविमुख रण से विमुख देशनिकाला देश से निकाला
कामचोर काम से जी चुरानेवाला नेत्रहीन नेत्र (से) हीन
धनहीन धन (से) हीन पापमुक्त पाप से मुक्त
जलहीन जल से हीन जातिभ्रष्ट जाति से भ्रष्ट
रोगमुक्त रोग से मुक्त लोकभय लोक से भय
राजद्रोह राज से द्रोह जलरिक्त जल से रिक्त
नरकभय नरक से भय देशनिष्कासन देश से निष्कासन
दोषमुक्त दोष से मुक्त बंधनमुक्त बंधन से मुक्त
(v)सम्बन्ध तत्पुरुष (षष्ठी तत्पुरुष) - इसमें संबंधकारक की विभक्ति 'का', 'के', 'की' लुप्त हो जाती है। जैसे-
समस्त-पद विग्रह समस्त-पद विग्रह
विद्याभ्यास विद्या का अभ्यास सेनापति सेना का पति
पराधीन पर के अधीन राजदरबार राजा का दरबार
श्रमदान श्रम (का) दान राजभवन राजा (का) भवन
राजपुत्र राजा (का) पुत्र देशरक्षा देश की रक्षा
शिवालय शिव का आलय गृहस्वामी गृह का स्वामी
(vi)अधिकरण तत्पुरुष (सप्तमी तत्पुरुष) - इसमें अधिकरण कारक की विभक्ति 'में', 'पर' लुप्त जो जाती है। जैसे-
समस्त-पद विग्रह समस्त-पद विग्रह
विद्याभ्यास विद्या का अभ्यास गृहप्रवेश गृह में प्रवेश
नरोत्तम नरों (में) उत्तम पुरुषोत्तम पुरुषों (में) उत्तम
दानवीर दान (में) वीर शोकमग्न शोक में मग्न
लोकप्रिय लोक में प्रिय कलाश्रेष्ठ कला में श्रेष्ठ
आनंदमग्न आनंद में मग्न
(2)कर्मधारय समास :- जिस समस्त-पद का उत्तरपद प्रधान हो तथा पूर्वपद व उत्तरपद में उपमान-उपमेय अथवा विशेषण-विशेष्य संबंध हो, कर्मधारय समास कहलाता है।
दूसरे शब्दों में-कर्ता-तत्पुरुष को ही कर्मधारय कहते हैं।
पहचान: विग्रह करने पर दोनों पद के मध्य में 'है जो', 'के समान' आदि आते है।
जिस तत्पुरुष समास के समस्त होनेवाले पद समानाधिकरण हों, अर्थात विशेष्य-विशेषण-भाव को प्राप्त हों, कर्ताकारक के हों और लिंग-वचन में समान हों, वहाँ 'कर्मधारयतत्पुरुष समास होता है।
समस्त-पद विग्रह समस्त-पद विग्रह
नवयुवक नव है जो युवक पीतांबर पीत है जो अंबर
परमेश्र्वर परम है जो ईश्र्वर नीलकमल नील है जो कमल
महात्मा महान है जो आत्मा कनकलता कनक की-सी लता
प्राणप्रिय प्राणों के समान प्रिय देहलता देह रूपी लता
लालमणि लाल है जो मणि नीलकंठ नीला है जो कंठ
महादेव महान है जो देव अधमरा आधा है जो मरा
परमानंद परम है जो आनंद
कर्मधारय तत्पुरुष के भेद
कर्मधारय तत्पुरुष के चार भेद है-
(i)विशेषणपूर्वपद (ii) विशेष्यपूर्वपद (iii) विशेषणोभयपद (iv)विशेष्योभयपद
(i)विशेषणपूर्वपद :- इसमें पहला पद विशेषण होता है। जैसे-
पीत अम्बर= पीताम्बर परम ईश्वर= परमेश्वर
नीली गाय= नीलगाय प्रिय सखा= प्रियसखा
(ii) विशेष्यपूर्वपद :- इसमें पहला पद विशेष्य होता है और इस प्रकार के सामासिक पद अधिकतर संस्कृत में मिलते है।
जैसे- कुमारी (क्वाँरी लड़की)
श्रमणा (संन्यास ग्रहण की हुई )=कुमारश्रमणा।
(iii) विशेषणोभयपद :- इसमें दोनों पद विशेषण होते है।
जैसे- नील-पीत (नीला-पी-ला ); शीतोष्ण (ठण्डा-गरम ); लालपिला; भलाबुरा; दोचार कृताकृत (किया-बेकिया, अर्थात अधूरा छोड़ दिया गया); सुनी-अनसुनी; कहनी-अनकहनी।
(iv)विशेष्योभयपद:- इसमें दोनों पद विशेष्य होते है।
जैसे- आमगाछ या आम्रवृक्ष, वायस-दम्पति।
कर्मधारयतत्पुरुष समास के उपभेद
कर्मधारयतत्पुरुष समास के अन्य उपभेद हैं- (i) उपमानकर्मधारय (ii) उपमितकर्मधारय (iii) रूपककर्मधारय
जिससे किसी की उपमा दी जाये, उसे 'उपमान' और जिसकी उपमा दी जाये, उसे 'उपमेय' कहा जाता है। घन की तरह श्याम =घनश्याम- यहाँ 'घन' उपमान है और 'श्याम' उपमेय।
(i) उपमानकर्मधारय - इसमें उपमानवाचक पद का उपमेयवाचक पद के साथ समास होता हैं। इस समास में दोनों शब्दों के बीच से 'इव' या 'जैसा' अव्यय का लोप हो जाता है और दोनों ही पद, चूँकि एक ही कर्ताविभक्ति, वचन और लिंग के होते है, इसलिए समस्त पद कर्मधारय-लक्षण का होता है। अन्य उदाहरण- विद्युत्-जैसी चंचला =विद्युच्चंचला।
(ii) उपमितकर्मधारय - यह उपमानकर्मधारय का उल्टा होता है, अर्थात इसमें उपमेय पहला पद होता है और उपमान दूसरा। जैसे- अधरपल्लव के समान = अधर-पल्लव; नर सिंह के समान =नरसिंह।
किन्तु, जहाँ उपमितकर्मधारय- जैसा 'नर सिंह के समान' या 'अधर पल्लव के समान' विग्रह न कर अगर 'नर ही सिंह या 'अधर ही पल्लव'- जैसा विग्रह किया जाये, अर्थात उपमान-उपमेय की तुलना न कर उपमेय को ही उपमान कर दिया जाय-
(iii) रूपककर्मधारय - जहाँ एक का दूसरे पर आरोप कर दिया जाये, वहाँ रूपककर्मधारय होगा। उपमितकर्मधारय और रूपककर्मधारय में विग्रह का यही अन्तर है। रूपककर्मधारय के अन्य उदाहरण- मुख ही है चन्द्र = मुखचन्द्र; विद्या ही है रत्न = विद्यारत्न भाष्य (व्याख्या) ही है अब्धि (समुद्र)= भाष्याब्धि।
कर्मधारय समास के कुछ उदाहरण
महाराज – महान् है जो राजा महापुरुष – महान् है जो पुरुष नीलाकाश – नीला है जो आकाश
महाकवि – महान् है जो कवि नीलोत्पल – नील है जो उत्पल (कमल) महापुरुष – महान् है जो पुरुष
महर्षि – महान् है जो ऋषि महासंयोग – महान् है जो संयोग शुभागमन – शुभ है जो आगमन
सज्जन – सत् है जो जन महात्मा – महान् है जो आत्मा सद्बुद्धि – सत् है जो बुद्धि
मंदबुद्धि – मंद है जिसकी बुद्धि मंदाग्नि – मंद है जो अग्नि बहुमूल्य – बहुत है जिसका मूल्य
पूर्णाँक – पूर्ण है जो अंक भ्रष्टाचार – भ्रष्ट है जो आचार शिष्टाचार – शिष्ट है जो आचार
अरुणाचल – अरुण है जो अचल शीतोष्ण – जो शीत है जो उष्ण है देवर्षि – देव है जो ऋषि है
परमात्मा – परम है जो आत्मा अंधविश्वास – अंधा है जो विश्वास कृतार्थ – कृत (पूर्ण) हो गया है जिसका अर्थ (उद्देश्य)
दृढ़प्रतिज्ञ – दृढ़ है जिसकी प्रतिज्ञा राजर्षि – राजा है जो ऋषि है अंधकूप – अंधा है जो कूप
कृष्ण सर्प – कृष्ण (काला) है जो सर्प नीलगाय – नीली है जो गाय नीलकमल – नीला है जो कमल
महाजन – महान् है जो जन महादेव – महान् है जो देव श्वेताम्बर – श्वेत है जो अम्बर
पीताम्बर – पीत है जो अम्बर अधपका – आधा है जो पका अधखिला – आधा है जो खिला
लाल टोपी – लाल है जो टोपी सद्धर्म – सत् है जो धर्म कालीमिर्च – काली है जो मिर्च
महाविद्यालय – महान् है जो विद्यालय परमानन्द – परम है जो आनन्द दुरात्मा – दुर् (बुरी) है जो आत्मा
भलमानुष – भला है जो मनुष्य महासागर – महान् है जो सागर महाकाल – महान् है जो काल
महाद्वीप – महान् है जो द्वीप कापुरुष – कायर है जो पुरुष बड़भागी – बड़ा है भाग्य जिसका
कलमुँहा – काला है मुँह जिसका नकटा – नाक कटा है जो जवाँ मर्द – जवान है जो मर्द
दीर्घायु – दीर्घ है जिसकी आयु अधमरा – आधा मरा हुआ निर्विवाद – विवाद से निवृत्त
महाप्रज्ञ – महान् है जिसकी प्रज्ञा नलकूप – नल से बना है जो कूप परकटा – पर हैँ कटे जिसके
दुमकटा – दुम है कटी जिसकी प्राणप्रिय – प्रिय है जो प्राणोँ को अल्पसंख्यक – अल्प हैँ जो संख्या मेँ
पुच्छलतारा – पूँछ है जिस तारे की नवागन्तुक – नया है जो आगन्तुक वक्रतुण्ड – वक्र (टेढ़ी) है जो तुण्ड
चौसिँगा – चार हैँ जिसके सीँग अधजला – आधा है जो जला अतिवृष्टि – अति है जो वृष्टि
महारानी – महान् है जो रानी नराधम – नर है जो अधम (पापी) नवदम्पत्ति – नया है जो दम्पत्ति
बाहुदण्ड – बाहु है दण्ड समान चंद्रवदन – चंद्रमा के समान वदन (मुख) कमलनयन – कमल के समान नयन
मुखारविँद – अरविँद रूपी मुख मृगनयनी – मृग के समान नयनोँ वाली मीनाक्षी – मीन के समान आँखोँ वाली
चन्द्रमुखी – चन्द्रमा के समान मुख वाली चन्द्रमुख – चन्द्र के समान मुख नरसिँह – सिँह रूपी नर
चरणकमल – कमल रूपी चरण क्रोधाग्नि – अग्नि के समान क्रोध कुसुमकोमल – कुसुम के समान कोमल
ग्रन्थरत्न – रत्न रूपी ग्रन्थ पाषाण हृदय – पाषाण के समान हृदय देहलता – देह रूपी लता
कनकलता – कनक के समान लता करकमल – कमल रूपी कर वचनामृत – अमृत रूपी वचन
अमृतवाणी – अमृत रूपी वाणी विद्याधन – विद्या रूपी धन वज्रदेह – वज्र के समान देह
संसार सागर – संसार रूपी सागर
(3)द्विगु समास :- जिस समस्त-पद का पूर्वपद संख्यावाचक विशेषण हो, वह द्विगु कर्मधारय समास कहलाता है। जैसे-
समस्त-पद विग्रह
सप्तसिंधु सात सिंधुओं का समूह
दोपहर दो पहरों का समूह
त्रिलोक तीनों लोको का समाहार
तिरंगा तीन रंगों का समूह
दुअत्री दो आनों का समाहार
द्विगु के भेद
इसके दो भेद होते है- (i)समाहारद्विगु और (ii)उत्तरपदप्रधानद्विगु।
(i)समाहारद्विगु :- समाहार का अर्थ है 'समुदाय' 'इकट्ठा होना' 'समेटना'।
जैसे- तीनों लोकों का समाहार= त्रिलोक
पाँचों वटों का समाहार= पंचवटी
पाँच सेरों का समाहार= पसेरी
तीनो भुवनों का समाहार= त्रिभुवन
(ii)उत्तरपदप्रधानद्विगु :- उत्तरपदप्रधान द्विगु के दो प्रकार है-
(a) बेटा या उत्पत्र के अर्थ में; जैसे -दो माँ का- द्वैमातुर या दुमाता; दो सूतों के मेल का- दुसूती;
(b) जहाँ सचमुच ही उत्तरपद पर जोर हो; जैसे- पाँच प्रमाण (नाम) =पंचप्रमाण; पाँच हत्थड़ (हैण्डिल)= पँचहत्थड़।
द्रष्टव्य- अनेक बहुव्रीहि समासों में भी पूर्वपद संख्यावाचक होता है। ऐसी हालत में विग्रह से ही जाना जा सकता है कि समास बहुव्रीहि है या द्विगु। यदि 'पाँच हत्थड़ है जिसमें वह =पँचहत्थड़' विग्रह करें, तो यह बहुव्रीहि है और 'पाँच हत्थड़' विग्रह करें, तो द्विगु।
तत्पुरुष समास के इन सभी प्रकारों में ये विशेषताएँ पायी जाती हैं-
(i) यह समास दो पदों के बीच होता है।
(ii) इसके समस्त पद का लिंग उत्तरपद के अनुसार हैं।
(iii) इस समास में उत्तरपद का ही अर्थ प्रधान होता हैं।
(4)बहुव्रीहि समास :- समास में आये पदों को छोड़कर जब किसी अन्य पदार्थ की प्रधानता हो, तब उसे बहुव्रीहि समास कहते है।
जैसे- दशानन- दस मुहवाला- रावण।
जिस समस्त-पद में कोई पद प्रधान नहीं होता, दोनों पद मिल कर किसी तीसरे पद की ओर संकेत करते है, उसमें बहुव्रीहि समास होता है। 'नीलकंठ', नीला है कंठ जिसका अर्थात शिव। यहाँ पर दोनों पदों ने मिल कर एक तीसरे पद 'शिव' का संकेत किया, इसलिए यह बहुव्रीहि समास है।
इस समास के समासगत पदों में कोई भी प्रधान नहीं होता, बल्कि पूरा समस्तपद ही किसी अन्य पद का विशेषण होता है।
समस्त-पद विग्रह
प्रधानमंत्री मंत्रियो में प्रधान है जो (प्रधानमंत्री)
पंकज (पंक में पैदा हो जो (कमल)
अनहोनी न होने वाली घटना (कोई विशेष घटना)
निशाचर निशा में विचरण करने वाला (राक्षस)
चौलड़ी चार है लड़ियाँ जिसमे (माला)
विषधर (विष को धारण करने वाला (सर्प)
तत्पुरुष और बहुव्रीहि में अन्तर- तत्पुरुष और बहुव्रीहि में यह भेद है कि तत्पुरुष में प्रथम पद द्वितीय पद का विशेषण होता है, जबकि बहुव्रीहि में प्रथम और द्वितीय दोनों पद मिलकर अपने से अलग किसी तीसरे के विशेषण होते है।
जैसे- 'पीत अम्बर =पीताम्बर (पीला कपड़ा )' कर्मधारय तत्पुरुष है तो 'पीत है अम्बर जिसका वह- पीताम्बर (विष्णु)' बहुव्रीहि। इस प्रकार, यह विग्रह के अन्तर से ही समझा जा सकता है कि कौन तत्पुरुष है और कौन बहुव्रीहि। विग्रह के अन्तर होने से समास का और उसके साथ ही अर्थ का भी अन्तर हो जाता है। 'पीताम्बर' का तत्पुरुष में विग्रह करने पर 'पीला कपड़ा' और बहुव्रीहि में विग्रह करने पर 'विष्णु' अर्थ होता है।
बहुव्रीहि समास के भेद बहुव्रीहि समास के चार भेद है-
(i) समानाधिकरणबहुव्रीहि (ii) व्यधिकरणबहुव्रीहि (iii) तुल्ययोगबहुव्रीहि (iv) व्यतिहारबहुव्रीहि
(i) समानाधिकरणबहुव्रीहि :- इसमें सभी पद प्रथमा, अर्थात कर्ताकारक की विभक्ति के होते है; किन्तु समस्तपद द्वारा जो अन्य उक्त होता है, वह कर्म, करण, सम्प्रदान, अपादान, सम्बन्ध, अधिकरण आदि विभक्ति-रूपों में भी उक्त हो सकता है।जैसे-
प्राप्त है उदक जिसको =प्राप्तोदक (कर्म में उक्त);
जीती गयी इन्द्रियाँ है जिसके द्वारा =जितेन्द्रिय (करण में उक्त);
दत्त है भोजन जिसके लिए =दत्तभोजन (सम्प्रदान में उक्त);
निर्गत है धन जिससे =निर्धन (अपादान में उक्त);
पीत है अम्बर जिसका =पीताम्बर;
मीठी है बोली जिसकी =मिठबोला;
नेक है नाम जिसका =नेकनाम (सम्बन्ध में उक्त);
चार है लड़ियाँ जिसमें =चौलड़ी;
सात है खण्ड जिसमें =सतखण्डा (अधिकरण में उक्त)।
(ii) व्यधिकरणबहुव्रीहि :- समानाधिकरण में जहाँ दोनों पद प्रथमा या कर्ताकारक की विभक्ति के होते है, वहाँ पहला पद तो प्रथमा विभक्ति या कर्ताकारक की विभक्ति के रूप का ही होता है, जबकि बादवाला पद सम्बन्ध या अधिकरण कारक का हुआ करता है।
जैसे- शूल है पाणि (हाथ) में जिसके =शूलपाणि; वीणा है पाणि में जिसके =वीणापाणि।
(iii) तुल्ययोगबहुव्रीहिु:-- जिसमें पहला पद 'सह' हो, वह तुल्ययोगबहुव्रीहि या सहबहुव्रीहि कहलाता है।
'सह' का अर्थ है 'साथ' और समास होने पर 'सह' की जगह केवल 'स' रह जाता है। इस समास में यह ध्यान देने की बात है कि विग्रह करते समय जो 'सह' (साथ) बादवाला या दूसरा शब्द प्रतीत होता है, वह समास में पहला हो जाता है।
जैसे- जो बल के साथ है, वह=सबल; जो देह के साथ है, वह सदेह; जो परिवार के साथ है, वह सपरिवार; जो चेत (होश) के साथ है, वह =सचेत।
(iv)व्यतिहारबहुव्रीहि:- जिससे घात-प्रतिघात सूचित हो, उसे व्यतिहारबहुव्रीहि कहा जाता है।
इ समास के विग्रह से यह प्रतीत होता है कि 'इस चीज से और इस या उस चीज से जो लड़ाई हुई'।
जैसे- मुक्के-मुक्के से जो लड़ाई हुई =मुक्का-मुक्की; घूँसे-घूँसे से जो लड़ाई हुई =घूँसाघूँसी; बातों-बातों से जो लड़ाई हुई =बाताबाती। इसी प्रकार, खींचातानी, कहासुनी, मारामारी, डण्डाडण्डी, लाठालाठी आदि।
इन चार प्रमुख जातियों के बहुव्रीहि समास के अतिरिक्त इस समास का एक प्रकार और है। जैसे-
प्रादिबहुव्रीहि- जिस बहुव्रीहि का पूर्वपद उपसर्ग हो, वह प्रादिबहुव्रीहि कहलाता है। जैसे- कुत्सित है रूप जिसका = कुरूप; नहीं है रहम जिसमें = बेरहम; नहीं है जन जहाँ = निर्जन।
तत्पुरुष के भेदों में भी 'प्रादि' एक भेद है, किन्तु उसके दोनों पदों का विग्रह विशेषण-विशेष्य-पदों की तरह होगा, न कि बहुव्रीहि के ढंग पर, अन्य पद की प्रधानता की तरह। जैसे- अति वृष्टि= अतिवृष्टि (प्रादितत्पुरुष) ।
द्रष्टव्य- (i) बहुव्रीहि के समस्त पद में दूसरा पद 'धर्म' या 'धनु' हो, तो वह आकारान्त हो जाता है; जैसे- प्रिय है धर्म जिसका = प्रियधर्मा; सुन्दर है धर्म जिसका = सुधर्मा; आलोक ही है धनु जिसका = आलोकधन्वा।
(ii) सकारान्त में विकल्प से 'आ' और 'क' किन्तु ईकारान्त, उकारान्त और ऋकारान्त समासान्त पदों के अन्त में निश्र्चितरूप से 'क' लग जाता है। जैसे- उदार है मन जिसका = उदारमनस, उदारमना या उदारमनस्क; अन्य में है मन जिसका = अन्यमना या अन्यमनस्क; ईश्र्वर है कर्ता जिसका = ईश्र्वरकर्तृक; साथ है पति जिसके; सप्तीक; बिना है पति के जो = विप्तीक।
बहुव्रीहि समास की विशेषताएँ
बहुव्रीहि समास की निम्नलिखित विशेषताएँ है-
(i) यह दो या दो से अधिक पदों का समास होता है। (ii) इसका विग्रह शब्दात्मक या पदात्मक न होकर वाक्यात्मक होता है।
(iii) इसमें अधिकतर पूर्वपद कर्ता कारक का होता है या विशेषण। (iv) इस समास से बने पद विशेषण होते है। अतः उनका लिंग विशेष्य के अनुसार होता है।
(v) इसमें अन्य पदार्थ प्रधान होता है।
बहुव्रीहि समास के कुछ उदाहरण
लम्बोदर सामास मेँ अन्य अर्थ होगा – लम्बा है उदर जिसका वह—गणेश अजानुबाहु – जानुओँ (घुटनोँ) तक बाहुएँ हैँ जिसकी वह—विष्णु
अजातशत्रु – नहीँ पैदा हुआ शत्रु जिसका—कोई व्यक्ति विशेष वज्रपाणि – वह जिसके पाणि (हाथ) मेँ वज्र है—इन्द्र
मकरध्वज – जिसके मकर का ध्वज है वह—कामदेव रतिकांत – वह जो रति का कांत (पति) है—कामदेव
आशुतोष – वह जो आशु (शीघ्र) तुष्ट हो जाते हैँ—शिव पंचानन – पाँच है आनन (मुँह) जिसके वह—शिव
वाग्देवी – वह जो वाक् (भाषा) की देवी है—सरस्वती युधिष्ठिर – जो युद्ध मेँ स्थिर रहता है—धर्मराज (ज्येष्ठ पाण्डव)
षडानन – वह जिसके छह आनन हैँ—कार्तिकेय सप्तऋषि – वे जो सात ऋषि हैँ—सात ऋषि विशेष जिनके नाम निश्चित हैँ
त्रिवेणी – तीन वेणियोँ (नदियोँ) का संगमस्थल—प्रयाग पंचवटी – पाँच वटवृक्षोँ के समूह वाला स्थान—मध्य प्रदेश मेँ स्थान विशेष
रामायण – राम का अयन (आश्रय)—वाल्मीकि रचित काव्य पंचामृत – पाँच प्रकार का अमृत—दूध, दही, शक्कर, गोबर, गोमूत्र का रसायन विशेष
षड्दर्शन – षट् दर्शनोँ का समूह—छह विशिष्ट भारतीय दर्शन–न्याय, सांख्य, द्वैत आदि चारपाई – चार पाए होँ जिसके—खाट
विषधर – विष को धारण करने वाला—साँप अष्टाध्यायी – आठ अध्यायोँ वाला—पाणिनि कृत व्याकरण
चक्रधर – चक्र धारण करने वाला—श्रीकृष्ण पतझड़ – वह ऋतु जिसमेँ पत्ते झड़ते हैँ—बसंत
दीर्घबाहु – दीर्घ हैँ बाहु जिसके—विष्णु पतिव्रता – एक पति का व्रत लेने वाली—वह स्त्री
तिरंगा – तीन रंगो वाला—राष्ट्रध्वज अंशुमाली – अंशु है माला जिसकी—सूर्य
महात्मा – महान् है आत्मा जिसकी—ऋषि वक्रतुण्ड – वक्र है तुण्ड जिसकी—गणेश
दिगम्बर – दिशाएँ ही हैँ वस्त्र जिसके—शिव घनश्याम – जो घन के समान श्याम है—कृष्ण
प्रफुल्लकमल – खिले हैँ कमल जिसमेँ—वह तालाब महावीर – महान् है जो वीर—हनुमान व भगवान महावीर
लोकनायक – लोक का नायक है जो—जयप्रकाश नारायण महाकाव्य – महान् है जो काव्य—रामायण, महाभारत आदि
अनंग – वह जो बिना अंग का है—कामदेव एकदन्त – एक दंत है जिसके—गणेश
नीलकण्ठ – नीला है कण्ठ जिनका—शिव पीताम्बर – पीत (पीले) हैँ वस्त्र जिसके—विष्णु
कपीश्वर – कपि (वानरोँ) का ईश्वर है जो—हनुमान वीणापाणि – वीणा है जिसके पाणि मेँ—सरस्वती
देवराज – देवोँ का राजा है जो—इन्द्र हलधर – हल को धारण करने वाला
शशिधर – शशि को धारण करने वाला—शिव दशमुख – दस हैँ मुख जिसके—रावण
चक्रपाणि – चक्र है जिसके पाणि मेँ – विष्णु पंचानन – पाँच हैँ आनन जिसके—शिव
पद्मासना – पद्म (कमल) है आसन जिसका—लक्ष्मी मनोज – मन से जन्म लेने वाला—कामदेव
गिरिधर – गिरि को धारण करने वाला—श्रीकृष्ण वसुंधरा – वसु (धन, रत्न) को धारण करती है जो—धरती
त्रिलोचन – तीन हैँ लोचन (आँखेँ) जिसके—शिव वज्रांग – वज्र के समान अंग हैँ जिसके—हनुमान
शूलपाणि – शूल (त्रिशूल) है पाणि मेँ जिसके—शिव चतुर्भुज – चार हैँ भुजाएँ जिसकी—विष्णु
लम्बोदर – लम्बा है उदर जिसका—गणेश चन्द्रचूड़ – चन्द्रमा है चूड़ (ललाट) पर जिसके—शिव
पुण्डरीकाक्ष – पुण्डरीक (कमल) के समान अक्षि (आँखेँ) हैँ जिसकी—विष्णु रघुनन्दन – रघु का नन्दन है जो—राम
सूतपुत्र – सूत (सारथी) का पुत्र है जो—कर्ण चन्द्रमौलि – चन्द्र है मौलि (मस्तक) पर जिसके—शिव
चतुरानन – चार हैँ आनन (मुँह) जिसके—ब्रह्मा अंजनिनन्दन – अंजनि का नन्दन (पुत्र) है जो—हनुमान
पंकज – पंक् (कीचड़) मेँ जन्म लेता है जो—कमल निशाचर – निशा (रात्रि) मेँ चर (विचरण) करता है जो—राक्षस
मीनकेतु – मीन के समान केतु हैँ जिसके—विष्णु नाभिज – नाभि से जन्मा (उत्पन्न) है जो—ब्रह्मा
वीणावादिनी – वीणा बजाती है जो—सरस्वती नगराज – नग (पहाड़ोँ) का राजा है जो—हिमालय
वज्रदन्ती – वज्र के समान दाँत हैँ जिसके—हाथी मारुतिनंदन – मारुति (पवन) का नंदन है जो—हनुमान
शचिपति – शचि का पति है जो—इन्द्र वसन्तदूत – वसन्त का दूत है जो—कोयल
गजानन – गज (हाथी) जैसा मुख है जिसका—गणेश गजवदन – गज जैसा वदन (मुख) है जिसका—गणेश
ब्रह्मपुत्र – ब्रह्मा का पुत्र है जो—नारद भूतनाथ – भूतोँ का नाथ है जो—शिव
षटपद – छह पैर हैँ जिसके—भौँरा लंकेश – लंका का ईश (स्वामी) है जो—रावण
सिन्धुजा – सिन्धु मेँ जन्मी है जो—लक्ष्मी दिनकर – दिन को करता है जो—सूर्य
(5) द्वन्द्व समास :- जिस समस्त-पद के दोनों पद प्रधान हो तथा विग्रह करने पर 'और', 'अथवा', 'या', 'एवं' लगता हो वह द्वन्द्व समास कहलाता है।
पहचान : दोनों पदों के बीच प्रायः योजक चिह्न (Hyphen (-) का प्रयोग होता है।
द्वन्द्व समास में सभी पद प्रधान होते है। द्वन्द्व और तत्पुरुष से बने पदों का लिंग अन्तिम शब्द के अनुसार होता है।
द्वन्द्व समास के भेद द्वन्द्व समास के तीन भेद है-
(i) इतरेतर द्वन्द्व (ii) समाहार द्वन्द्व (iii) वैकल्पिक द्वन्द्व
(i) इतरेतर द्वन्द्व-: वह द्वन्द्व, जिसमें 'और' से सभी पद जुड़े हुए हो और पृथक् अस्तित्व रखते हों, 'इतरेतर द्वन्द्व' कहलता है।
इस समास से बने पद हमेशा बहुवचन में प्रयुक्त होते है; क्योंकि वे दो या दो से अधिक पदों के मेल से बने होते है।
जैसे- राम और कृष्ण =राम-कृष्ण, ऋषि और मुनि =ऋषि-मुनि, गाय और बैल =गाय-बैल, भाई और बहन =भाई-बहन, माँ और बाप =माँ-बाप, बेटा और बेटी =बेटा-बेटी इत्यादि।
यहाँ ध्यान रखना चाहिए कि इतरेतर द्वन्द्व में दोनों पद न केवल प्रधान होते है, बल्कि अपना अलग-अलग अस्तित्व भी रखते है।
(ii) समाहार द्वन्द्व- समाहार का अर्थ है समष्टि या समूह। जब द्वन्द्व समास के दोनों पद और समुच्चयबोधक से जुड़े होने पर भी पृथक-पृथक अस्तित्व न रखें, बल्कि समूह का बोध करायें, तब वह समाहार द्वन्द्व कहलाता है।
समाहार द्वन्द्व में दोनों पदों के अतिरिक्त अन्य पद भी छिपे रहते है और अपने अर्थ का बोध अप्रत्यक्ष रूप से कराते है।
जैसे- आहारनिद्रा =आहार और निद्रा (केवल आहार और निद्रा ही नहीं, बल्कि इसी तरह की और बातें भी); दालरोटी=दाल और रोटी (अर्थात भोजन के सभी मुख्य पदार्थ); हाथपाँव =हाथ और पाँव (अर्थात हाथ और पाँव तथा शरीर के दूसरे अंग भी )। इसी तरह नोन-तेल, कुरता-टोपी, साँप-बिच्छू, खाना-पीना इत्यादि।
कभी-कभी विपरीत अर्थवाले या सदा विरोध रखनेवाले पदों का भी योग हो जाता है। जैसे- चढ़ा-ऊपरी, लेन-देन, आगा-पीछा, चूहा-बिल्ली इत्यादि।
जब दो विशेषण-पदों का संज्ञा के अर्थ में समास हो, तो समाहार द्वन्द्व होता है। जैसे- लंगड़ा-लूला, भूखा-प्यास, अन्धा-बहरा इत्यादि।
उदाहरण- लँगड़े-लूले यह काम नहीं क्र सकते; भूखे-प्यासे को निराश नहीं करना चाहिए; इस गाँव में बहुत-से अन्धे-बहरे है।
द्रष्टव्य- यहाँ यह ध्यान रखना चाहिए कि जब दोनों पद विशेषण हों और विशेषण के ही अर्थ में आयें तब वहाँ द्वन्द्व समास नहीं होता, वहाँ कर्मधारय समास हो जाता है। जैसे- लँगड़ा-लूला आदमी यह काम नहीं कर सकता; भूखा-प्यासा लड़का सो गया; इस गाँव में बहुत-से लोग अन्धे-बहरे हैं- इन प्रयोगों में 'लँगड़ा-लूला', 'भूखा-प्यासा' और 'अन्धा-बहरा' द्वन्द्व समास नहीं हैं।
(iii) वैकल्पिक द्वन्द्व :- जिस द्वन्द्व समास में दो पदों के बीच 'या', 'अथवा' आदि विकल्पसूचक अव्यय छिपे हों, उसे वैकल्पिक द्वन्द्व कहते है।
इस समास में बहुधा दो विपरीतार्थक शब्दों का योग रहता है। जैसे- पाप-पुण्य, धर्माधर्म, भला-बुरा, थोड़ा-बहुत इत्यादि। यहाँ 'पाप-पुण्य' का अर्थ 'पाप' और 'पुण्य' भी प्रसंगानुसार हो सकता है।
अन्नजल – अन्न और जल देश–विदेश – देश और विदेश राम–लक्ष्मण – राम और लक्ष्मण रात–दिन – रात और दिन
खट्टामीठा – खट्टा और मीठा जला–भुना – जला और भुना माता–पिता – माता और पिता दूधरोटी – दूध और रोटी
पढ़ा–लिखा – पढ़ा और लिखा हरि–हर – हरि और हर राधाकृष्ण – राधा और कृष्ण राधेश्याम – राधे और श्याम
सीताराम – सीता और राम गौरीशंकर – गौरी और शंकर अड़सठ – आठ और साठ पच्चीस – पाँच और बीस
छात्र–छात्राएँ – छात्र और छात्राएँ कन्द–मूल–फल – कन्द और मूल और फल गुरु–शिष्य – गुरु और शिष्य राग–द्वेष – राग या द्वेष
एक–दो – एक या दो दस–बारह – दस या बारह लाख–दो–लाख – लाख या दो लाख पल–दो–पल – पल या दो पल
आर–पार – आर या पार पाप–पुण्य – पाप या पुण्य उल्टा–सीधा– उल्टा या सीधा कर्तव्याकर्तव्य –कर्तव्य अथवा अकर्तव्य
सुख–दुख – सुख अथवा दुख जीवन–मरण – जीवन अथवा मरण धर्माधर्म – धर्म अथवा अधर्म लाभ–हानि – लाभ अथवा हानि
यश–अपयश – यश अथवा अपयश हाथ–पाँव – हाथ, पाँव आदि नोन–तेल – नोन, तेल आदि रुपया–पैसा – रुपया, पैसा आदि
आहार–निद्रा – आहार, निद्रा आदि जलवायु – जल, वायु आदि कपड़े–लत्ते – कपड़े, लत्ते आदि बहू–बेटी – बहू, बेटी आदि
पाला–पोसा – पाला, पोसा आदि साग–पात – साग, पात आदि काम–काज – काम, काज आदि खेत–खलिहान–खेत,खलिहान आदि
लूट–मार – लूट, मार आदि पेड़–पौधे – पेड़, पौधे आदि भला–बुरा – भला, बुरा आदि दाल–रोटी – दाल, रोटी आदि
ऊँच–नीच – ऊँच, नीच आदि धन–दौलत – धन, दौलत आदि आगा–पीछा – आगा, पीछा आदि चाय–पानी – चाय, पानी आदि
भूल–चूक – भूल, चूक आदि फल–फूल – फल, फूल आदि खरी–खोटी – खरी, खोटी आदि
(6) अव्ययीभाव समास :- अव्ययीभाव का लक्षण है- जिसमे पूर्वपद की प्रधानता हो और सामासिक या समास पद अव्यय हो जाय, उसे अव्ययीभाव समास कहते है।
सरल शब्दो में- जिस समास का पहला पद (पूर्वपद) अव्यय तथा प्रधान हो, उसे अव्ययीभाव समास कहते है।
इस समास में समूचा पद क्रियाविशेषण अव्यय हो जाता है। इसमें पहला पद उपसर्ग आदि जाति का अव्यय होता है और वही प्रधान होता है। जैसे- प्रतिदिन, यथासम्भव, यथाशक्ति, बेकाम, भरसक इत्यादि।
पहचान : पहला पद अनु, आ, प्रति, भर, यथा, यावत, हर आदि होता है।
अव्ययीभाववाले पदों का विग्रह- ऐसे समस्तपदों को तोड़ने में, अर्थात उनका विग्रह करने में हिन्दी में बड़ी कठिनाई होती है, विशेषतः संस्कृत के समस्त पदों का विग्रह करने में हिन्दी में जिन समस्त पदों में द्विरुक्तिमात्र होती है, वहाँ विग्रह करने में केवल दोनों पदों को अलग कर दिया जाता है। जैसे- (संस्कृत) प्रतिदिन- दिन-दिन
यथाविधि- विधि के अनुसार; यथाक्रम- क्रम के अनुसार; यथाशक्ति- शक्ति के अनुसार; आजन्म- जन्म तक
पूर्वपद-अव्यय+ उत्तरपद = समस्त-पद विग्रह
प्रति + दिन = प्रतिदिन प्रत्येक दिन
आ + जन्म = आजन्म जन्म से लेकर
यथा + संभव = यथासंभव जैसा संभव हो
अनु + रूप = अनुरूप रूप के योग्य
भर + पेट = भरपेट पेट भर के
हाथ + हाथ = हाथों-हाथ हाथ ही हाथ में
पद के क्रिया विशेषण अव्यय की भाँति प्रयोग होने पर अव्ययीभाव समास की निम्नांकित स्थितियाँ बन सकती हैँ–
(1) अव्यय+अव्यय–ऊपर-नीचे, दाएँ-बाएँ, इधर-उधर, आस-पास, जैसे-तैसे, यथा-शक्ति, यत्र-तत्र। (2) अव्ययोँ की पुनरुक्ति– धीरे-धीरे, पास-पास, जैसे-जैसे।
(3) संज्ञा+संज्ञा– नगर-डगर, गाँव-शहर, घर-द्वार। (4) संज्ञाओँ की पुनरुक्ति– दिन-दिन, रात-रात, घर-घर, गाँव-गाँव, वन-वन।
(5) संज्ञा+अव्यय– दिवसोपरान्त, क्रोध-वश। (6) विशेषण संज्ञा– प्रतिदिवस, यथा अवसर।
(7) कृदन्त+कृदन्त– जाते-जाते, सोते-जागते। (8) अव्यय+विशेषण– भरसक, यथासम्भव।
अव्ययीभाव समास के उदाहरण:
समस्त–पद — विग्रह यथारूप – रूप के अनुसार यथायोग्य – जितना योग्य हो यथाशक्ति – शक्ति के अनुसार
प्रतिक्षण – प्रत्येक क्षण भरपूर – पूरा भरा हुआ अत्यन्त – अन्त से अधिक रातोँरात – रात ही रात मेँ
अनुदिन – दिन पर दिन निरन्ध्र – रन्ध्र से रहित आमरण – मरने तक आजन्म – जन्म से लेकर
आजीवन – जीवन पर्यन्त प्रतिशत – प्रत्येक शत (सौ) पर भरपेट – पेट भरकर प्रत्यक्ष – अक्षि (आँखोँ) के सामने
दिनोँदिन – दिन पर दिन सार्थक – अर्थ सहित सप्रसंग – प्रसंग के साथ प्रत्युत्तर – उत्तर के बदले उत्तर
यथार्थ – अर्थ के अनुसार आकंठ – कंठ तक घर–घर – हर घर/प्रत्येक घर यथाशीघ्र – जितना शीघ्र हो
श्रद्धापूर्वक – श्रद्धा के साथ अनुरूप – जैसा रूप है वैसा अकारण – बिना कारण के हाथोँ हाथ – हाथ ही हाथ मेँ
बेधड़क – बिना धड़क के प्रतिपल – हर पल नीरोग – रोग रहित यथाक्रम – जैसा क्रम है
साफ–साफ – बिल्कुल स्पष्ट यथेच्छ – इच्छा के अनुसार प्रतिवर्ष – प्रत्येक वर्ष निर्विरोध – बिना विरोध के
नीरव – रव (ध्वनि) रहित बेवजह – बिना वजह के प्रतिबिँब – बिँब का बिँब दानार्थ – दान के लिए
उपकूल – कूल के समीप की क्रमानुसार – क्रम के अनुसार कर्मानुसार – कर्म के अनुसार अंतर्व्यथा – मन के अंदर की व्यथा
यथासंभव – जहाँ तक संभव हो यथावत् – जैसा था, वैसा ही यथास्थान – जो स्थान निर्धारित है
प्रत्युपकार–उपकार के बदले किया जाने वाला उपकार मंद–मंद – मंद के बाद मंद, बहुत ही मंद
(7) नत्र समास :- इसमे नहीं का बोध होता है। जैसे - अनपढ़, अनजान , अज्ञान ।
समस्त-पद विग्रह
अनाचार न आचार अनदेखा न देखा हुआ अन्याय न न्याय अनभिज्ञ न अभिज्ञ
नालायक नहीं लायक अचल न चल नास्तिक न आस्तिक अनुचित न उचित
समास-सम्बन्धी कुछ विशेष बातें-
(1)एक समस्त पद में एक से अधिक प्रकार के समास हो सकते है। यह विग्रह करने पर स्पष्ट होता है। जिस समास के अनुसार विग्रह होगा, वही समास उस पद में माना जायेगा।
जैसे- पीताम्बर- (i) पीत है जो अम्बर (कर्मधारय), (ii)पीत है अम्बर जिसका (बहुव्रीहि); निडर- बिना डर का (अव्ययीभाव ); नहीं है डर जिसे (प्रादि का नञ बहुव्रीहि); सुरूप - सुन्दर है जो रूप (कर्मधारय), सुन्दर है रूप जिसका (बहुव्रीहि); चन्द्रमुख- चन्द्र के समान मुख (कर्मधारय); बुद्धिबल- बुद्धि ही है बल (कर्मधारय);
(2) समासों का विग्रह करते समय यह ध्यान रखना चाहिए कि यथासम्भव समास में आये पदों के अनुसार ही विग्रह हो।
जैसे- पीताम्बर का विग्रह- 'पीत है जो अम्बर' अथवा 'पीत है अम्बर जिसका' ऐसा होना चाहिए। बहुधा संस्कृत के समासों, विशेषकर अव्ययीभाव, बहुव्रीहि और उपपद समासों का विग्रह हिन्दी के अनुसार करने में कठिनाई होती है। ऐसे स्थानों पर हिन्दी के शब्दों से सहायता ली जा सकती है। जैसे- कुम्भकार =कुम्भ को बनानेवाला; खग=आकाश में जानेवाला; आमरण =मरण तक; व्यर्थ =बिना अर्थ का; विमल=मल से रहित; इत्यादि।
(3)अव्ययीभाव समास में दो ही पद होते है। बहुव्रीहि में भी साधारणतः दो ही पद रहते है। तत्पुरुष में दो से अधिक पद हो सकते है और द्वन्द्व में तो सभी समासों से अधिक पद रह सकते है।
जैसे- नोन-तेल-लकड़ी, आम-जामुन-कटहल-कचनार इत्यादि (द्वन्द्व)।
(4)यदि एक समस्त पद में अनेक समासवाले पदों का मेल हो तो अलग-अलग या एक साथ भी विग्रह किया जा सकता है।
जैसे- चक्रपाणिदर्शनार्थ-चक्र है पाणि में जिसके= चक्रपाणि (बहुव्रीहि); दर्शन के अर्थ =दर्शनार्थ (अव्ययीभाव ); चक्रपाणि के दर्शनार्थ =चक्रपाणिदर्शनार्थ (अव्ययीभाव ) । समूचा पद क्रियाविशेषण अव्यय है, इसलिए अव्ययीभाव है।
हिन्दी व्याकरण
• भाषा • लिपि • व्याकरण • वर्ण,वर्णमाला • शब्द • वाक्य • संज्ञा • सर्वनाम • क्रिया • काल • विशेषण • अव्यय • लिंग • उपसर्ग • प्रत्यय • तत्सम तद्भव शब्द • संधि 1 • संधि 2 • कारक • मुहावरे 1 • मुहावरे 2 • लोकोक्ति • समास 1 • समास 2 • वचन • अलंकार • विलोम • अनेकार्थी शब्द • अनेक शब्दों के लिए एक शब्द 1 • अनेक शब्दों के लिए एक शब्द 2 • पत्रलेखन • विराम चिह्न • युग्म शब्द • अनुच्छेद लेखन • कहानी लेखन • संवाद लेखन • तार लेखन • प्रतिवेदन लेखन • पल्लवन • संक्षेपण • छन्द • रस • शब्दार्थ • धातु • पदबंध • उपवाक्य • शब्दों की अशुद्धियाँ • समोच्चरित भिन्नार्थक शब्द • वाच्य • सारांश • भावार्थ • व्याख्या • टिप्पण • कार्यालयीय आलेखन • पर्यायवाची शब्द • श्रुतिसम भिन्नार्थक शब्द • वाक्य शुद्धि • पाठ बोधन • शब्द शक्ति • हिन्दी संख्याएँ • पारिभाषिक शब्दावली •
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