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श्री कृष्ण जन्माष्टमी











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श्री कृष्ण जन्माष्टमी (Shri Krishna Janmashtami)

पर्व हार्दिक की शुभकामनाएं....

...... जय श्री कृष्ण






पुराणों के अनुसार सतयुग, त्रेता, द्वापर और कलयुग इन चार युगों में समयकाल विभाजित है। द्वापर युग में युगपुरूष के रूप में असमान्य शक्तियों के साथ श्री कृष्ण ने भाद्रपद माह के कृष्णपक्ष की अष्टमी को रोहणी नक्षत्र में मध्यरात्री में कंश के कारागृह में जन्म लिया। कृष्ण को भगवान विष्णु का आठवां अवतार माना जाता है अतः हर वर्ष भाद्रपद माह के कृष्ण पक्ष को जन्माष्टमी के रूप में मनाते हैं।



परिचय

वर्ष के अगस्त या सितम्बर महिने में, श्री कृष्ण के जन्म दिवस के अवसर पर कृष्ण जन्माष्टमी, भारत समेत अन्य देशों में मनाया जाता है। यह एक आध्यात्मिक उत्सव तथा हिंदुओं के आस्था का प्रतीक है। इस त्योहार को दो दिन मनाया जाता हैं।


जन्माष्टमी दो दिन क्यों मनाया जाता हैं?

ऐसा माना जाता है नक्षत्रों के चाल के वजह से साधु संत (शैव संप्रदाय) इसे एक दिन मनाते हैं, तथा अन्य गृहस्थ (वैष्णव संप्रदाय) दूसरे दिन पूजा अर्चना उपवास करते हैं।


कृष्ण जन्माष्टमी पर बाज़ार की चहल-पहल

कृष्ण जन्माष्टमी के अवसर पर हफ्तों पहले से बाज़ार की रौनक देखते बनती है, जिधर देखो रंग बिरंगे कृष्ण की संदुर मन को मोह लेने वाली मूर्तियां, फूल माला, पूजा सामग्री, मिठाई तथा सजावट के विविध समान से मार्केट सज़े मिलते हैं।


कृष्ण जन्माष्टमी पर्व का महत्व

कृष्ण जन्माष्टमी उत्सव का महत्व बहुत व्यापक है, भगवत गीता में एक बहुत प्रभावशाली कथन है “जब-जब धर्म की हानि और अधर्म की वृद्धि होगी, तब-तब मैं जन्म लूँगा”। बुराई कितनी भी शक्तिशाली क्यों न हो एक दिन उसका अंत अवश्य होता है। जन्माष्टमी के पर्व से गीता के इस कथन का बोध मनुष्य को होता है। इसके अतिरिक्त इस पर्व के माध्यम से निरंतर काल तक सनातन धर्म की आने वाली पीढ़ी अपने आराध्य के गुणों को जान सकेंगी और उनके दिखाए गए मार्ग पर चलने का प्रयास करेंगी। कृष्ण जन्माष्टमी का त्योहार हमारे सभ्यता व संस्कृति को दर्शाता है।

युवा पीढ़ी को भारतीय सभ्यता, संसकृति से अवगत कराने के लिए, इन लोकप्रिय तीज-त्योहारों का मनाया जाना अति आवश्यक है। इस प्रकार के आध्यात्मिक पर्व सनातन धर्म के आत्मा के रूप में देखे जाते हैं। हम सभी को इन पर्वों में रुचि लेना चाहिए और इनसे जुड़ी प्रचलित कथाओं को जानना चाहिए।


कृष्ण की कुछ प्रमुख जीवन लीला

  • श्री कृष्ण के बाल्यावस्था के कारनामों को ही देखते हुए इस बात को अनुमान लगाया जा सकता है, वह निरंतर चलते रहने और धरती पर अपने उद्देश्य की पूर्ति के लिए अवतरित हुए। एक के बाद एक राक्षसों (पूतना, बघासुर, अघासुर, कालिया नाग) के वध से उनकी शक्ति और पराक्रम का पता चलता है।
  • अत्यधिक शक्तिशाली होने के उपरांत (बाद) भी, वह सामान्य जनों के मध्य सामान्य व्यवहार करते, मटके तोड़ देना, चोरी कर माखन खाना, ग्वालो के साथ खेलना जीवन के विभिन्न पहलुओं के हर भूमिका को उन्होनें आनंद के साथ जीया है।
  • श्री कृष्ण को प्रेम का प्रतीक माना जाता है। सूफी संतों के दोहों में राधा तथा अन्य गोपियों के साथ कृष्ण के प्रेम व वियोग लीला का बहुत संदुर चित्रण प्राप्त होता है।
  • कंस के वध के बाद कृष्ण द्वारकाधीश बने, द्वारका के पद पर रहते हुए वह महाभारत के युद्ध में अर्जुन के सारथी बने तथा गीता का उपदेश देकर अर्जुन को जीवन के कर्तव्यों का महत्व बताया और युद्ध में विजय दिलाया।

कृष्ण परम ज्ञानी, युग पुरूष, अत्यधिक शक्तिशाली, प्रभावशाली व्यक्तित्व वाले तथा एक कुशल राजनीतिज्ञ थे पर उन्होंने अपनी शक्तियों का उपयोग कभी स्वयं के लिए नहीं किया। उनका हर कार्य धरती के उत्थान के लिए था।


कारावास में कृष्ण जन्माष्टमी

कृष्ण के कारागृह में जन्म लेने के वजह से देश के ज्यादातर थाने तथा जेल को कृष्ण जन्माष्टमी के अवसर पर सजाया जाता है तथा यहां पर्व का भव्य आयोजन किया जाता है।


निष्कर्ष

श्री कृष्ण के कार्यों के वजह से महाराष्ट्र में विट्ठल, राजस्थान में श्री नाथजी या ठाकुर जी, उड़ीसा में जगन्नाथ तथा इसी तरह विश्व भर में अनेक नामों से पूजा जाता है। उनके जीवन से सभी को यह प्रेरणा लेने की आवश्यकता है की चाहे जो कुछ हो जाए व्यक्ति को सदैव अपने कर्म पथ पर चलते रहना चाहिए।








मेरे पसंदीदा वात्सल्य सम्राट सूरदास के कुछ पद


सूरदास के पद




हरि पालनैं झुलावै

जसोदा हरि पालनैं झुलावै।

हलरावै दुलरावै मल्हावै जोइ सोइ कछु गावै॥

मेरे लाल को आउ निंदरिया काहें न आनि सुवावै।

तू काहै नहिं बेगहिं आवै तोकौं कान्ह बुलावै॥

कबहुं पलक हरि मूंदि लेत हैं कबहुं अधर फरकावैं।

सोवत जानि मौन ह्वै कै रहि करि करि सैन बतावै॥

इहि अंतर अकुलाइ उठे हरि जसुमति मधुरैं गावै।

जो सुख सूर अमर मुनि दुरलभ सो नंद भामिनि पावै॥


मुख दधि लेप किए

सोभित कर नवनीत लिए।

घुटुरुनि चलत रेनु तन मंडित मुख दधि लेप किए॥

चारु कपोल लोल लोचन गोरोचन तिलक दिए।

लट लटकनि मनु मत्त मधुप गन मादक मधुहिं पिए॥

कठुला कंठ वज्र केहरि नख राजत रुचिर हिए।

धन्य सूर एकौ पल इहिं सुख का सत कल्प जिए॥


कबहुं बढ़ैगी चोटी

मैया कबहुं बढ़ैगी चोटी।

किती बेर मोहि दूध पियत भइ यह अजहूं है छोटी॥

तू जो कहति बल की बेनी ज्यों ह्वै है लांबी मोटी।

काढ़त गुहत न्हवावत जैहै नागिन-सी भुई लोटी॥

काचो दूध पियावति पचि पचि देति न माखन रोटी।

सूरदास त्रिभुवन मनमोहन हरि हलधर की जोटी॥


दाऊ बहुत खिझायो

मैया मोहिं दाऊ बहुत खिझायो।

मो सों कहत मोल को लीन्हों तू जसुमति कब जायो॥

कहा करौं इहि रिस के मारें खेलन हौं नहिं जात।

पुनि पुनि कहत कौन है माता को है तेरो तात॥

गोरे नंद जसोदा गोरी तू कत स्यामल गात।

चुटकी दै दै ग्वाल नचावत हंसत सबै मुसुकात॥

तू मोहीं को मारन सीखी दाउहिं कबहुं न खीझै।

मोहन मुख रिस की ये बातैं जसुमति सुनि सुनि रीझै॥

सुनहु कान बलभद्र चबाई जनमत ही को धूत।

सूर स्याम मोहिं गोधन की सौं हौं माता तू पूत॥


मैं नहिं माखन खायो

मैया! मैं नहिं माखन खायो।

ख्याल परै ये सखा सबै मिलि मेरैं मुख लपटायो॥

देखि तुही छींके पर भाजन ऊंचे धरि लटकायो।

हौं जु कहत नान्हें कर अपने मैं कैसें करि पायो॥

मुख दधि पोंछि बुद्धि इक कीन्हीं दोना पीठि दुरायो।

डारि सांटि मुसुकाइ जशोदा स्यामहिं कंठ लगायो॥

बाल बिनोद मोद मन मोह्यो भक्ति प्राप दिखायो।

सूरदास जसुमति को यह सुख सिव बिरंचि नहिं पायो॥


हरष आनंद बढ़ावत

हरि अपनैं आंगन कछु गावत।

तनक तनक चरनन सों नाच मन हीं मनहिं रिझावत॥

बांह उठाइ कारी धौरी गैयनि टेरि बुलावत।

कबहुंक बाबा नंद पुकारत कबहुंक घर में आवत॥

माखन तनक आपनैं कर लै तनक बदन में नावत।

कबहुं चितै प्रतिबिंब खंभ मैं लोनी लिए खवावत॥

दुरि देखति जसुमति यह लीला हरष आनंद बढ़ावत।

सूर स्याम के बाल चरित नित नितही देखत भावत॥


भई सहज मत भोरी

जो तुम सुनहु जसोदा गोरी।

नंदनंदन मेरे मंदिर में आजु करन गए चोरी॥

हौं भइ जाइ अचानक ठाढ़ी कह्यो भवन में कोरी।

रहे छपाइ सकुचि रंचक ह्वै भई सहज मति भोरी॥

मोहि भयो माखन पछितावो रीती देखि कमोरी।

जब गहि बांह कुलाहल कीनी तब गहि चरन निहोरी॥

लागे लेन नैन जल भरि भरि तब मैं कानि न तोरी।

सूरदास प्रभु देत दिनहिं दिन ऐसियै लरिक सलोरी॥


अरु हलधर सों भैया

कहन लागे मोहन मैया मैया।

नंद महर सों बाबा बाबा अरु हलधर सों भैया॥

ऊंच चढि़ चढि़ कहति जशोदा लै लै नाम कन्हैया।

दूरि खेलन जनि जाहु लाला रे! मारैगी काहू की गैया॥

गोपी ग्वाल करत कौतूहल घर घर बजति बधैया।

सूरदास प्रभु तुम्हरे दरस कों चरननि की बलि जैया॥


कबहुं बोलत तात

खीझत जात माखन खात।

अरुन लोचन भौंह टेढ़ी बार बार जंभात॥

कबहुं रुनझुन चलत घुटुरुनि धूरि धूसर गात।

कबहुं झुकि कै अलक खैंच नैन जल भरि जात॥

कबहुं तोतर बोल बोलत कबहुं बोलत तात।

सूर हरि की निरखि सोभा निमिष तजत न मात॥


चोरि माखन खात

चली ब्रज घर घरनि यह बात।

नंद सुत संग सखा लीन्हें चोरि माखन खात॥

कोउ कहति मेरे भवन भीतर अबहिं पैठे धाइ।

कोउ कहति मोहिं देखि द्वारें उतहिं गए पराइ॥

कोउ कहति किहि भांति हरि कों देखौं अपने धाम।

हेरि माखन देउं आछो खाइ जितनो स्याम॥

कोउ कहति मैं देखि पाऊं भरि धरौं अंकवारि।

कोउ कहति मैं बांधि राखों को सकैं निरवारि॥

सूर प्रभु के मिलन कारन करति बुद्धि विचार।

जोरि कर बिधि को मनावतिं पुरुष नंदकुमार॥


गाइ चरावन जैहौं

आजु मैं गाइ चरावन जैहौं।

बृन्दावन के भांति भांति फल अपने कर मैं खेहौं॥

ऐसी बात कहौ जनि बारे देखौ अपनी भांति।

तनक तनक पग चलिहौ कैसें आवत ह्वै है राति॥

प्रात जात गैया लै चारन घर आवत हैं सांझ।

तुम्हारे कमल बदन कुम्हिलैहे रेंगत घामहि मांझ॥

तेरी सौं मोहि घाम न लागत भूख नहीं कछु नेक।

सूरदास प्रभु कह्यो न मानत पर्यो अपनी टेक॥


धेनु चराए आवत

आजु हरि धेनु चराए आवत।

मोर मुकुट बनमाल बिराज पीतांबर फहरावत॥

जिहिं जिहिं भांति ग्वाल सब बोलत सुनि स्त्रवनन मन राखत।

आपुन टेर लेत ताही सुर हरषत पुनि पुनि भाषत॥

देखत नंद जसोदा रोहिनि अरु देखत ब्रज लोग।

सूर स्याम गाइन संग आए मैया लीन्हे रोग॥


मुखहिं बजावत बेनु

धनि यह बृंदावन की रेनु।

नंदकिसोर चरावत गैयां मुखहिं बजावत बेनु॥

मनमोहन को ध्यान धरै जिय अति सुख पावत चैन।

चलत कहां मन बस पुरातन जहां कछु लेन न देनु॥

इहां रहहु जहं जूठन पावहु ब्रज बासिनि के ऐनु।

सूरदास ह्यां की सरवरि नहिं कल्पबृच्छ सुरधेनु॥


मिटि गई अंतरबाधा

खेलौ जाइ स्याम संग राधा।

यह सुनि कुंवरि हरष मन कीन्हों मिटि गई अंतरबाधा॥

जननी निरखि चकित रहि ठाढ़ी दंपति रूप अगाधा॥

देखति भाव दुहुंनि को सोई जो चित करि अवराधा॥

संग खेलत दोउ झगरन लागे सोभा बढ़ी अगाधा॥

मनहुं तडि़त घन इंदु तरनि ह्वै बाल करत रस साधा॥

निरखत बिधि भ्रमि भूलि पर्यौ तब मन मन करत समाधा॥

सूरदास प्रभु और रच्यो बिधि सोच भयो तन दाधा॥




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