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अलंकार (Figure of speech)

 


अलंकार (Figure of speech)


जो किसी वस्तु को अलंकृत करे वह अलंकार कहलाता है।

दूसरे अर्थ मेंकाव्य अथवा भाषा को शोभा बनाने वाले मनोरंजक ढंग को अलंकार कहते है।

संकीर्ण अर्थ मेंकाव्यशरीरअर्थात् भाषा को शब्दार्थ से सुसज्जित तथा सुन्दर बनानेवाले चमत्कारपूर्ण मनोरंजक ढंग को अलंकार कहते है।

अलंकार का शाब्दिक अर्थ है 'आभूषण' मानव समाज सौन्दर्योपासक हैउसकी इसी प्रवृत्ति ने अलंकारों को जन्म दिया है।

जिस प्रकार सुवर्ण आदि के आभूषणों से शरीर की शोभा बढ़ती है उसी प्रकार काव्य-अलंकारों से काव्य की।

संस्कृत के अलंकार संप्रदाय के प्रतिष्ठापक आचार्य दण्डी के शब्दों में- 'काव्य शोभाकरान् धर्मान अलंकारान् प्रचक्षते'- काव्य के शोभाकारक धर्म (गुणअलंकार कहलाते हैं।

रस की तरह अलंकार का भी ठीक-ठीक लक्षण बतलाना कठिन है। फिर भीव्यापक और संकीर्ण अर्थों में इसकी परिभाषा निश्र्चित करने की चेष्टा की गयी है। 

जिस प्रकार आभूषण स्वर्ण से बनते हैउसी प्रकार अलंकार भी सुवर्ण (सुन्दर वर्णोंसे बनते है। काव्यशास्त्र के प्रारम्भिक काल में 'अलंकारशब्द का प्रयोग इसी अर्थ में हुआ है। इसके अतिरिक्तप्राचीन काल में इस शब्द का एक और अर्थ लिया जाता था। संस्कृत में, 'अलंकारशब्द का व्यवहार साहित्य के शास्त्रपक्ष में हुआ है। पहले अलंकारशास्त्र कहने से रसअलंकाररीतिपिंगल इत्यादि समस्त काव्यांगों का बोध होता था। हिन्दी में संस्कृत के ही अनुसरण पर महाकवि केशवदास ने 'अलंकारशब्द का प्रयोग अपनी 'कविप्रियामें इसी व्यापक अर्थ में किया है।

अलंकार के भेद

अलंकार के तीन भेद होते है:-

(1)शब्दालंकार     (2)अर्थालंकार     (3)उभयालंकार

(1)शब्दालंकार :- जिस अलंकार में शब्दों के प्रयोग के कारण कोई चमत्कार उत्पत्र हो जाता है वे 'शब्दालंकारकहलाते है।

शब्दालंकार दो शब्द से मिलकर बना है। शब्द +अलंकार

शब्द के दो रूप हैध्वनि और अर्थ। ध्वनि के आधार पर शब्दालंकार की सृष्टी होती है। इस अलंकार में वर्ण या शब्दों की लयात्मकता या संगीतात्मकता होती हैअर्थ का चमत्कार नहीं।

शब्दालंकार (i) कुछ वर्णगत, (ii) कुछ शब्दगत और (iii) कुछ वाक्यगत होते हैं। अनुप्रयासयमक आदि अलंकार वर्णगत और शब्दगत हैतो लाटानुप्रयास वाक्यगत।

शब्दालंकार के प्रमुख भेद है - (i)अनुप्रास (ii)यमक (iii)श्लेष (iv) वक्रोक्ति आदि 

(i)अनुप्रास अलंकार :- वर्णों की आवृत्ति को अनुप्रास कहते है। आवृत्ति का अर्थ किसी वर्ण का एक से अधिक बार आना है।

अनुप्रास शब्द 'अनुतथा 'प्रासशब्दों के योग से बना है। 'अनुका अर्थ है :- बार-बार तथा 'प्रासका अर्थ है -वर्ण। जहाँ स्वर की समानता के बिना भी वर्णों की बार -बार आवृत्ति होती है ,वहाँ अनुप्रास अलंकार होता है 

इस अलंकार में एक ही वर्ण का बार -बार प्रयोग किया जाता है 

 जैसे -जन रंजन मंजन दनुज मनुज रूप सुर भूप 

यहाँ  पद में 'वर्ण और  'वर्ण की आवृत्ति हुई है।

जैसे- मुदित महीपति मंदिर आए। सेवक सचिव सुमंत्र बुलाए।

यहाँ पहले पद में 'वर्ण की आवृत्ति और दूसरे में 'वर्ण की आवृत्ति हुई है। इस आवृत्ति से संगीतमयता  गयी है।

अनुप्रास के प्रकार

अनुप्रास के कई प्रकार है- ()छेकानुप्रास (वृत्यनुप्रास (लाटानुप्रास

()छेकानुप्रास- जहाँ स्वरूप और क्रम से अनेक व्यंजनों की आवृत्ति एक बार होवहाँ छेकानुप्रास होता है।

इसमें व्यंजनवर्णों का उसी क्रम में प्रयोग होता है। 'रसऔर 'सरमें छेकानुप्रास नहीं है। 'सर'-'सरमें वर्णों की आवृत्ति उसी क्रम और स्वरूप में हुई हैअतएव यहाँ छेकानुप्रास है। महाकवि देव ने इसका एक सुन्दर उदाहरण इस प्रकार दिया है-

रीझि रीझि रहसि रहसि हँसि हँसि उठै 

साँसैं भरि आँसू भरि कहत दई दई।

यहाँ 'रीझि रीझ', 'रहसि-रहसि', 'हँसि-हँसिऔर 'दई-दईमें छेकानुप्रास हैक्योंकि व्यंजनवर्णों की आवृत्ति उसी क्रम और स्वरूप में हुई है।

दूसरा उदाहरण इस प्रकार है-

बंदउँ गुरु पद पदुम परागा,

सुरुचि सुवास सरस अनुरागा। 

यहाँ 'पदऔर 'पदुममें 'और 'की एकाकार आवृत्ति स्वरूपतः अर्थात् 'और '', 'और 'की आवृत्ति एक ही क्रम मेंएक ही बार हुई हैक्योंकि 'पदके 'के बाद 'की आवृत्ति 'पदुममें भी 'के बाद 'के रूप में हुई है। 'छेकका अर्थ चतुर है। चतुर व्यक्तियों को यह अलंकार विशेष प्रिय है।

()वृत्यनुप्रासवृत्यनुप्रास जहाँ एक व्यंजन की आवृत्ति एक या अनेक बार होवहाँ वृत्यनुप्रास होता है। रसानुकूल वर्णों की योजना को वृत्ति कहते हैं।

उदाहरण इस प्रकार है-

(i) सपने सुनहले मन भाये। 

यहाँ 'वर्ण की आवृत्ति एक बार हुई है। 

(ii) सेस महेस गनेस दिनेस सुरेसहु जाहि निरन्तर गावैं। 

यहाँ 'वर्ण की आवृत्ति अनेक बार हुई है। 

छेकानुप्रास और वृत्यनुप्रास का अन्तरछेकानुप्रास में अनेक व्यंजनों की एक बार स्वरूपतः और क्रमतः आवृत्ति होती है। इसके विपरीतवृत्यनुप्रास में अनेक व्यंजनों की आवृत्ति एक बार केवल स्वरूपतः होती हैक्रमतः नहीं। यदि अनेक व्यंजनों की आवृत्ति स्वरूपतः और क्रमतः होती भी हैतो एक बार नहींअनेक बार भी हो सकती है। उदाहरण ऊपर दिये गये हैं।

(लाटानुप्रास- जब एक शब्द या वाक्यखण्ड की आवृत्ति उसी अर्थ में होपर तात्पर्य या अन्वय में भेद होतो वहाँ 'लाटानुप्रासहोता है। 

यह यमक का ठीक उलटा है। इसमें मात्र शब्दों की आवृत्ति  होकर तात्पर्यमात्र के भेद से शब्द और अर्थ दोनों की आवृत्ति होती है।उदाहरण-

तेगबहादुरहाँवे ही थे गुरु पदवी के पात्र समर्थ,

तेगबहादुरहाँवे ही थे गुरु - पदवी थी जिनके अर्थ। 

इन दो पंक्तियो में शब्द प्रायः एक-से हैं और अर्थ भी एक ही हैं। 

प्रथम पंक्ति के 'के पात्र समर्थका स्थान दूसरी पंक्ति में 'थी जिनके अर्थशब्दों ने ले लिया है। शेष शब्द ज्यों-के-त्यों हैं। 

दोनों पंक्तियों में तेगबहादुर के चरित्र में गुरुपदवी की उपयुक्तता बतायी गयी है। यहाँ शब्दों की आवृत्ति के साथ-साथ अर्थ की भी आवृत्ति हुई है।

दूसरा उदाहरण इस प्रकार है - वही मनुष्य है कि जो मनुष्य के लिए मरे। 

इसमें 'मनुष्यशब्द की आवृत्ति दो बार हुई है। दोनों का अर्थ 'आदमीहै। पर तात्पर्य या अन्वय में भेद है। पहला मनुष्य कर्ता है और दूसरा सम्प्रदान।

(ii) यमक अलंकार :- जहाँ एक ही शब्द अधिक बार प्रयुक्त होलेकिन उसके अर्थ अलग अलग हो वहाँ यमक अलंकार होता है। 

उदाहरण -  कनक कनक ते सौगुनी ,मादकता अधिकाय।

वा खाये बौराय नर ,वा पाये बौराय।।

यहाँ कनक शब्द की दो बार आवृत्ति हुई है जिसमे एक कनक का अर्थ है - धतूरा और दूसरे का स्वर्ण है।

(iii)श्लेष अलंकार :- श्लिष्ट पदों से अनेक अर्थों के कथन को 'श्लेषकहते है। 

इनमें दो बातें आवश्यक है-( ) एक शब्द के एक से अधिक अर्थ हो, ( )एक से अधिक अर्थ प्रकरण में अपेक्षित हों। 

उदाहरण- माया महाठगिनि हम जानी।

तिरगुन फाँस लिए कर डोलै ,बोलै मधुरी बानी।

यहाँ 'तिरगुनशब्द में शब्द श्लेष की योजना हुई है। इसके दो अर्थ हैतीन गुण-सत्त्वरजस्तमस्। दूसरा अर्थ हैतीन धागोंवाली रस्सी।

ये दोनों अर्थ प्रकरण के अनुसार ठीक बैठते हैक्योंकि इनकी अर्थसंगति 'महाठगिनि मायासे बैठायी गयी है।

दूसरा उदाहरण- चिरजीवौ जोरी जुरैक्यों  सनेह गँभीर। 

को घटि ये वृषभानुजावे हलधर के बीर। 

यहाँ 'वृषभानुजाऔर 'हलधरश्लिष्ट शब्द हैंजिनसे बिना आवृत्ति के ही भित्र-भित्र अर्थ निकलते हैं। 'वृषभानुजासे 'वृषभानु की बेटी' (राधाऔर 'वृषभ की बहन' (गायका तथा 'हलधर के बीरसे कृष्ण (बलदेव के भाईऔर साँड़ (बैल के भाईका अर्थ निकलता है। 

अर्थ और शब्द दोनों पक्षों पर 'श्लेषके लागू होने के कारण आचार्यो में विवाद है कि इसे शब्दलंकार में रखा जाय या अर्थालंकार में।

(iv) वक्रोक्ति - किसी अन्य अभिप्राय से कहे हुए वाक्य का दूसरे व्यक्ति द्वारा श्लेष अथवा काकु-उक्ति से अन्य अर्थ कल्पित किया जाना। 

जयदेव ने इसे अर्थालंकार में स्थान दिया हैयह श्लेष तथा काकु से वाच्यार्थ बदलने की कल्पना है। 'काकुऔर 'श्लेषशब्दशक्ति के ही अंग हैं। अतः इस अलंकार को अधिकतर आचार्यो ने शब्दालंकार में ही रखा है।

भामह ने वक्र शब्द और अर्थ की उक्ति को काम्य अलंकार मानकर और कुन्तक ने वक्रोक्ति को काव्य का जीवन मानकर इस अलंकार को सर्वाधिक महत्त्व दिया है। 'शब्दऔर 'अर्थदोनों में 'वक्रोक्ति होने के कारण 'श्लेषकी तरह यहाँ भी विवाद है कि यह शब्दालंकार में परिगणित हो या अर्थालंकार में।

 

रुद्रट ने इसे शब्दालंकार के रूप में स्वीकार कर इसके दो भेद किये है- (1) श्लेषवक्रोक्ति (2) काकुवक्रोक्ति 

श्लेषवक्रोक्ति दो प्रकार के होते है- (i) भंगपद श्लेषवक्रोक्ति (ii) अभंगपद श्लेषवक्रोक्ति

(i) भंगपद श्लेषवक्रोक्ति का उदाहरण इस प्रकार है-

पश्र- अयि गौरवशालिनीमानिनिआज 

सुधास्मित क्यों बरसाती नहीं ?

उत्तर- निज कामिनी को प्रियगौअवशा,

अलिनी भी कभी कहि जाती कहीं ?

यहाँ नायिका को नायक ने 'गौरवशालिनीकहकर मनाना चाहा है। नायिका नायक से इतनी तंग और चिढ़ी थी कि अपने प्रति इस 'गौरवशालिनीसम्बोधन से चिढ़ गयीक्योंकि नायक ने उसे एक नायिका का 'गौरवदेने के बजाय 'गौ' (सीधी-सादी गाय,जिसे जब चाहो चुमकारकर मतलब गाँठ लो), 'अवशा' (लाचार), 'अलिनी' (यों ही मँडरानेवाली मधुपीसमझकर लगातार तिरस्कृत किया था। नायिका ने नायक के प्रश्र का उत्तर  देकर प्रकारान्तर से वक्रोक्ति या टेढ़े ढंग की उक्ति से यह कहा, ''हाँतुम तो मुझे 'गौरवशालिनीही समझते हो !'' अर्थात, 'गौः+अवशा+अलिनी=गौरवशालिनी ''जब यही समझते होतो तुम्हारा मुझे 'गौरवशालिनीकहकर पुकारना मेरे लिए कोई अर्थ नहीं रखता''- नायिका के उत्तर में यही दूसरा अर्थ वक्रता से छिपा हुआ हैजिसे नायक को अवश्य समझना पड़ा होगा। कहा कुछ जाय और समझनेवाले उसका अर्थ कुछ ग्रहण करेंइस नाते यह वक्रोक्ति है। इस वक्रोक्ति को प्रकट करनेवाले पद 'गौरवशालिनीमें दो अर्थ (एक 'हे गौरवशालिनीऔर दूसरा 'गौःअवशाअलिनी') श्लिष्ट होने के कारण यह श्लेषवक्रोक्ति है। औरइस 'गौरवशालिनीपद को 'गौः+अवशा+अलिनीमें तोड़कर दूसरा श्लिष्ट अर्थ लेने के कारण यहाँ भंगपद श्लेषवक्रोक्ति अलंकार है।

(ii) अभंगपद श्लेषवक्रोक्ति का उदाहरण इस प्रकार है-

एक कबूतर देख हाथ में पूछाकहाँ अपर है ?

उसने कहा, 'अपरकैसा ?वह उड़ गयासपर है।

यहाँ जहाँगीर ने नूरजहाँ से पूछाएक ही कबूतर तुम्हारे पास हैअपर (दूसराकहाँ गया ! नूरजहाँ ने दूसरे कबूतर को भी उड़ाते हुए कहाअपर (बे-परकैसावह तो इसी कबूतर की तरह सपर (पर वालाथासो उड़ गया।

अपने प्यारे कबूतर के उड़ जाने पर जहाँगीर की चिन्ता का मख़ौल नूरजहाँ ने उसके 'अपर' (दूसरेकबूतर को 'अपर' (बे-परके बजाय 'सपर' (परवालासिद्ध कर वक्रोक्ति के द्वारा उड़ाया। यहाँ 'अपरशब्द को बिना तोड़े ही 'दूसराऔर 'बेपरवालादो अर्थ लगने से अभंगश्लेष हुआ।

(2)काकुवक्रोक्तिकण्ठध्वनि की विशेषता से अन्य अर्थ कल्पित हो जाना ही काकुवक्रोक्ति है। यहाँ अर्थपरिवर्तन मात्र कण्ठध्वनि के कारण होता हैशब्द के कारण नहीं। अतः यह अर्थालंकार है। किन्तु मम्मट ने इसे कथन-शौली के कारण शब्दालंकार माना है।

काकुवक्रोक्ति का उदाहरण है-

लिखन बैठि जाकी सबिहिगहि गहि गरब गरूर। 

भए  केते जगत के चतुर चितेरे कूर।।

यहाँ उच्चारण के ढंग अर्थात काकु के कारण 'भए  केते' (कितने  हुएका अर्थ 'सभी हो गएहो जाता है। 

इस प्रकार वक्रोक्ति में चार बातें होनी आवश्यक हैं-

(वक्ता की उक्ति। 

(उक्ति का अभिप्रेत अर्थ। 

(श्रोता द्वारा उसका अन्य अर्थ लगाया जाना। 

(श्रोता द्वारा लगाए अर्थ का प्रकट भी होना।

वक्रोक्ति और श्लेष में भेददोनों में अर्थचमत्कार दिखाया जाता है। श्लेष में चमत्कार का आधार एक शब्द के दो अर्थ है;

वक्रोक्ति में यह चमत्कार कथन के तोड़मरोड़ या उक्ति ध्वन्यर्थ द्वारा प्रकट होता है। मुख्य अन्तर इतना ही है।

(2) अर्थालंकार :-  जिस अलंकार में अर्थ के प्रयोग करने से कोई चमत्कार उत्पत्र होता है वे अर्थालंकार कहलाते है।

दूसरे अर्थ मेंअर्थ को चमत्कृत या अलंकृत करनेवाले अलंकार अर्थालंकार है।

जिस शब्द से जो अर्थालंकार सधता हैउस शब्द के स्थान पर दूसरा पर्याय रख देने पर भी वही अलंकार सधेगाक्योंकि इस जाति के अलंकारों का सम्बन्ध शब्द से  होकर अर्थ से होता है। केशव (९६०० ई०ने 'कविप्रियामें दण्डी (७०० ई०)के आदर्श पर ३५ अर्थलंकार गिनाये हैं। जसवन्तसिंह (९६४३ ई०ने 'भाषाभूषणमें ९०९अर्थलंकारों की चर्चा की है। दूल्ह (९७४३ ई०के 'कविकुलकण्ठाभरणजयदेव (९३ वीं शताब्दीके 'चन्द्रालोकऔर अप्पय दीक्षित (९७वीं शताब्दीके 'कुवलयानन्दमें ९९५ अर्थलंकारों का विवेचन है।

अर्थालंकार के भेद

इसके प्रमुख भेद है-(i)उपमा (ii)रूपक (iii)उत्प्रेक्षा (iv) अतिशयोक्ति (v) दृष्टान्त (vi)उपमेयोपमा (vii)प्रतिवस्तूपमा (viii)अर्थान्तरन्यास (ix)काव्यलिंग (x)उल्लेख (xi)विरोधाभास (xii) स्वभावोक्ति अलंकार

(i)उपमा अलंकार :-  दो वस्तुओं में समानधर्म के प्रतिपादन को 'उपमाकहते है। 

उपमा का अर्थ है -समतातुलनाया बराबरी। उपमा के लिए चार बातें आवश्यक है-

( )उपमेय - जिसकी उपमा दी जाय,अर्थात जिसका वर्णन हो रहा हो; ()उपमान -जिससे उपमा दी जाय; ()समानतावाचक पद -जैसे -ज्योंसमसासीतुल्यनाई इत्यादि; ()समानधर्म -उपमेय और उपमान के समानधर्मको व्यक्त करनेवाला शब्द।

उदाहरणार्थ -  नवल सुन्दर श्याम -शरीर की,

सजल नीरद -सी कल कान्ति थी।

इस उदाहरण का विश्लेषण इस प्रकार होगा -

कान्ति -उपमेय;

नीरद -उपमान,

सी -समानतावाचक पद;

कल-समान धर्म।

(ii) रूपक अलंकार :- उपमेय पर उपमान का आरोप या उपमान और उपमेय का अभेद ही 'रूपकहै। 

इसके लिए तीन बातों का होना आवश्यक है -()उपमेय को उपमान का रूप देना; ()वाचक पद का लोप; ()उपमेय का भी साथ -साथ वर्णन।

उदाहरणार्थबीती विभावरी जाग री,

अम्बर -पनघट में डुबो रही तारा -घट उषा -नागरी। -  प्रसाद 

यहाँ अम्बरतारा और ऊषा (जो उपमेय है ) पर क्रमशः पनघटघट और नागरी (जो उपमान है ) का आरोप हुआ है। वाचक पद नहीं आये है और उपमेय (प्रस्तुत)तथा उपमान (अप्रस्तुतदोनों का साथ -साथ वर्णन हुआ है।

(iii) उत्प्रेक्षा अलंकार :- उपमेय (प्रस्तुतमें कल्पित उपमान (अप्रस्तुतकी सम्भावना को 'उत्प्रेक्षाकहते है। 

उत्प्रेक्षा का अर्थ हैकिसी वस्तु को सम्भावित रूप में देखना। 

दूसरे अर्थ मेंउपमेय में उपमान को प्रबल रूप में कल्पना की आँखों से देखने की प्रक्रिया को उत्प्रेक्षा कहते है। इसमें वाचक पदों का प्रयोग होता है। 

सम्भावना सन्देह से कुछ ऊपर और निश्र्चय से कुछ निचे होती है। इसमें  तो पूरा सन्देह होता है और  पूरा निश्र्चय। उसमें कवि की कल्पना साधारण कोटि की  होकर विलक्षण होती है। अर्थ में चमत्कार लाने के लिए ऐसा किया जाता है। इसमें वाचक पदों का प्रयोग होता है।

उदाहरणार्थ- फूले कास सकल महि छाई। 

          जनु बरसा रितु प्रकट बुढ़ाई।।

यहाँ वर्षाऋतु के बाद शरद् के आगमन का वर्णन हुआ है। शरद् में कास के खिले हुए फूल ऐसे मालूम होते है जैसे वर्षाऋतु का बुढ़ापा प्रकट हो गया हो। यहाँ 'कास के फूल' (उपमेयमें 'वर्षाऋतु के बुढ़ापे' (उपमान ) की सम्भावित कल्पना की गयी है। इस कल्पना से अर्थ का चमत्कार प्रकट होता है। वस्तुतः अन्त में वर्षाऋतु की गति और शक्ति बुढ़ापे की तरह शिथिल पड़ जाती है। 

उपमा में जहाँ 'सा' 'तरहआदि वाचक पद रहते हैवहाँ उत्प्रेक्षा में 'मानों' 'जानोआदि शब्दों द्वारा सम्भावना पर जोर दिया जाता है। जैसे- 'आकाश मानो अंजन बरसा रहा है' (उत्प्रेक्षा) 'अंजन -सा अँधेरा' (उपमासे अधिक जोरदार है।

(iv)अतिशयोक्ति अलंकार :- जहाँ किसी का वर्णन इतना बढ़ा-चढ़ाकर किया जाये कि सीमा या मर्यादा का उल्लंघन हो जायवहाँ 'अतिशयोक्ति अलंकारहोता है।

दूसरे शब्दों मेंउपमेय को उपमान जहाँ बिलकुल ग्रस लेवहाँ अतिशयोक्ति अलंकार होता है। 

अतिशयोक्ति का अर्थ होता हैउक्ति में अतिशयता का समावेश। यहाँ उपमेय और उपमान का समान कथन  होकर सिर्फ उपमान का वर्णन होता है।

उदाहरण - बाँधा था विधु को किसनेइन काली जंजीरों से,

मणिवाले फणियों का मुखक्यों भरा हुआ हीरों से।

यहाँ मोतियों से भरी हुई प्रिया की माँग का कवि ने वर्णन किया है। विधु या चन्द्र-से मुख काकाली जंजीरों से केश और मणिवाले फणियों से मोती भरी माँग का बोध होता है।

(v)दृष्टान्त अलंकार :- जहाँ उपमेय और उपमान तथा उनके साधारण धर्मों में बिम्ब-प्रतिबिम्ब भाव होवहाँ दृष्टान्त अलंकार होता है।

जैसेसुख-दुख के मधुर मिलन से यह जीवन हो परिपूरन।

फिर धन में ओझल हो शशिफिर शशि में ओझल हो धन। 

यहाँ सुख-दुख और शशि तथा धन में बिम्ब-प्रतिबिम्ब भाव है

(vi)उपमेयोपमा अलंकार :- उपमेय और उपमान को परस्पर उपमान और उपमेय बनाने की प्रक्रिया को 'उपमेयोपमाकहते है।

इसमें दो तरह की भित्र उपमाएँ होती है।

उदाहरणार्थराम के समान शम्भु सम राम है। 

यहाँ दो उपमाएँ एक साथ आयी हैपर दोनों उपमाओं के उपमेय और उपमान क्रमशः उपमान और उपमेय में परिवर्तित हो गये है।

(vii)प्रतिवस्तूपमा अलंकार :- जहाँ उपमेय और उपमान के पृथक-पृथक वाक्यों में एक ही समानधर्म दो भित्र-भित्र शब्दों द्वारा कहा जायवहाँ 'प्रतिवस्तूपमा अलंकारहोता है।

उदाहरणार्थसिंहसुता क्या कभी स्यार से प्यार करेगी ?

           क्या परनर का हाथ कुलस्त्री कभी धरेगी ?

यहाँ दोनों वाक्यों में पूर्वार्द्ध (उपमानवाक्यका धर्म 'प्यार करनाउत्तरार्द्ध (उपमेय-वाक्यमें 'हाथ धरनाके रूप में कथित है। वस्तुतः दोनों का अर्थ एक ही है। एक ही समानधर्म सिर्फ शब्दभेद से दो बार कहा गया है।

प्रतिवस्तूपमा और दृष्टान्त में भेदमुख्य भेद इस प्रकार है-

(प्रतिवस्तूपमा में समान धर्म एक ही रहता हैजिसे दो भित्र शब्दों के प्रयोग से कहा जाता हैकिन्तु दृष्टान्त में समानधर्म दो होते हैजो दो शब्दों के प्रयोग से कहे जाते है। 

(प्रतिवस्तूपमा के दोनों वाक्यों में एक ही बात रहती हैजिसे दो वाक्यों द्वारा कहा जाता है। दृष्टान्त में एक वाक्य का धर्म दूसरे में एक समान नहीं होता। 

इन दो अलंकारों में इतनी समानता है कि पण्डितराज जगत्राथ ने इन्हें एक ही अलंकार का भेद माना है।

(viii)अर्थान्तरन्यास अलंकार :- जब किसी सामान्य कथन से विशेष कथन का अथवा विशेष कथन से सामान्य कथन का समर्थन किया जायतो 'अर्थान्तरन्यास अलंकारहोता है।

उदाहरणार्थबड़े  हूजे गुनन बिनुबिरद बड़ाई पाय। 

           कहत धतूरे सों कनकगहनो गढ़ो  जाय। 

यहाँ सामान्य कथन का समर्थन विशेष बात से किया गया है। पूर्वार्द्ध में सामान्य बात कही गयी है और उसका समर्थन विशेष बात कहकर किया गया है।

(ix)काव्यलिंग अलंकार :- किसी युक्ति से समर्थित की गयी बात को 'काव्यलिंग अलंकारकहते है। 

यहाँ किसी बात के समर्थन में कोई- कोई युक्ति या कारण अवश्य दिया जाता है। बिना ऐसा किये वाक्य की बातें अधूरी रह जायेंगी।

एक उदाहरण - कनक कनक ते सौगुनीमादकता अधिकाय। 

            उहि खाए बौरात नरइहि पाए बौराय। 

धतूरा खाने से नशा होता हैपर सुवर्ण पाने से ही नशा होता है। यह एक अजीब बात है।

यहाँ इसी बात का समर्थन किया गया है कि सुवर्ण में धतूरे से अधिक मादकता है। दोहे के उत्तरार्द्ध में इस कथन की युक्ति पुष्टि हुई है। धतूरा खाने से नशा चढ़ता हैकिन्तु सुवर्ण पाने से ही मद की वृद्धि होती हैयह कारण देकर पूर्वार्द्ध की समर्थनीय बात की पुष्टि की गयी है।

(x)उल्लेख अलंकार :- जहाँ एक वस्तु का वर्णन अनेक प्रकार से किया जायेवहाँ 'उल्लेख अलंकारहोता है।

जैसे- तू रूप है किरण मेंसौन्दर्य है सुमन में,

      तू प्राण है पवन मेंविस्तार है गगन में।

(xi)विरोधाभास अलंकार :- जहाँ विरोध  होते हुए भी विरोध का आभास दिया जायवहाँ 'विरोधाभास अलंकारहोता है।

जैसेबैन सुन्या जबतें मधुरतबतें सुनत  बैन। 

यहाँ 'बैन सुन्योंऔर 'सुनत  बैनमें विरोध दिखाई पड़ता है। सच तो यह है कि दोनों में वास्तविक विरोध नहीं है। यह विरोध तो प्रेम की तन्मयता का सूचक है।

(xii) स्वभावोक्ति अलंकार :- किसी वस्तु के स्वाभाविक वर्णन को ' स्वभावोक्ति अलंकारकहते है। यहाँ सादगी में चमत्कार रहता हैं।

उदाहरण- चितवनि भोरे भाय कीगोरे मुख मुसकानि। 

          लगनि लटकि आली गरेचित खटकति नित आनि।।

नायक नायिका की सखी से कहता है कि उस नायिका की वह भोलेपन की चितवनवह गोरे मुख की हँसी और वह लटक-लटककर सखी के गले लिपटनाये चेष्टाएँ नित्य मेरे चित्त में खटका करती हैं। यहाँ नायिका के जिन आंगिक व्यापारों का चित्रण हुआ हैवे सभी स्वाभाविक हैं। कहीं भी अतिशयोक्ति से काम नहीं लिया गया। इसमें वस्तुदृश्य अथवा व्यक्ति की अवस्थाओं या स्थितियों का यथार्थ अंकन हुआ है।

(3)उभयालंकार :- जो अलंकार शब्द और अर्थ दोनों पर आश्रित रहकर दोनों को चमत्कृत करते हैवे 'उभयालंकारकहलाते है। 

उदाहरण -   'कजरारी अंखियन में कजरारी  लखाय।'            इस अलंकार में शब्द और अर्थ दोनों है।

 




हिन्दी व्याकरण 

•   भाषा   •   लिपि   •   व्याकरण   •   वर्ण,वर्णमाला   •   शब्द   •   वाक्य   •   संज्ञा   •   सर्वनाम   •   क्रिया   •   काल   •   विशेषण   •   अव्यय   •   लिंग   •   उपसर्ग   •   प्रत्यय   •   तत्सम तद्भव शब्द   •    संधि 1   •  संधि 2   •   कारक   •   मुहावरे 1   •   मुहावरे 2   •   लोकोक्ति   •   समास 1   •   समास 2   •   वचन   •   अलंकार   •   विलोम   •   अनेकार्थी शब्द   •  अनेक शब्दों के लिए एक शब्द 1   •   अनेक शब्दों के लिए एक शब्द 2   •   पत्रलेखन   •   विराम चिह्न   •   युग्म शब्द   •   अनुच्छेद लेखन   •   कहानी लेखन   •   संवाद लेखन   •   तार लेखन   •   प्रतिवेदन लेखन   •   पल्लवन   •   संक्षेपण   •   छन्द   •   रस   •   शब्दार्थ   •   धातु   •   पदबंध   •   उपवाक्य   •   शब्दों की अशुद्धियाँ   •   समोच्चरित भिन्नार्थक शब्द   •   वाच्य   •   सारांश   •   भावार्थ   •   व्याख्या   •   टिप्पण   •   कार्यालयीय आलेखन   •   पर्यायवाची शब्द   •   श्रुतिसम भिन्नार्थक शब्द   •   वाक्य शुद्धि   •   पाठ बोधन   •   शब्द शक्ति   •   हिन्दी संख्याएँ   •   पारिभाषिक शब्दावली   •



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